Book Title: Vartaman Yug me Mahavir ke Updesh ki Sarthakata
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ उनका मन निर्भीक होता गया। बारह बर्ष के उनके "रूप चक्षु का विषय है। आँखों के सामने आये साधनाकाल की कैसी-कैसी भयंकर घटनाएँ पढ़ने को हए रूप को न देखना शक्य नहीं। आँखों के सामने मिलती हैं। पढ़ कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरी आये हए रूप में राग-द्वेष का परित्याग करो। मान्यता है कि उन पर हाथी, नाग आदि के जो आक्र “गन्ध नाक का विषय है। नाक के समीप आयी मण हुए, वे उनके अपने विकार ही थे / व्यक्ति विकार- दुई गन्ध को नमन हुई गन्ध को न सूचना शक्य नहीं। नाक के समीप प्रस्त तभी होता है, जब उसका मन उसके नियंत्रण में आई हुई गन्ध में राग-द्वेष का परित्याग करो। नहीं होता / महावीर के मन के नियत्रित होते ही उनके "रस जिहा का विषय है। जिह्वा पर आये हए रस विकारों के लिए कोई स्थान न रहा / अत: यह स्वा- का आस्वाद न लेना शक्य नहीं। जिह्वा पर आये हुए भाविक ही था कि निराश्रय हो जाने पर विकारों ने ___ रस में रागद्वेष का परित्याग करो। कूपित होकर महावीर को भयंकर-से-भयंकर यातनाएँ "स्पर्श शरीर का विषय है। स्पर्श का विषय पहुंचाई थीं / नाग आदि तो प्रतीक मात्र थे / महावीर उपस्थित होने पर उसमें राग-द्वेष न करो।" को अपने विकारों से किस हद तक जूझना पड़ा होगा, देश-काल के अनुसार सन्दर्भ बदलते रहते हैं, उसकी सहज ही कल्पना नहीं की जा सकती। युग नया परिवेश धारण करता है। लेकिन शाश्वत .. मनुष्य सामाजिक प्राणी है / वह समाज में रहता मूल्यों में कभी परिवर्तन नहीं होता / भगवान महावीर और जीता है। किसी के साथ उसका राग होता है, ने जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, वे शाश्वत हैं। उनका किसी के साथ दुष। जिन्हें वह प्रेम करता है, जो उसके आरम्भ वैयक्तिक जीवन से होता है। सत्य, अहिंसा, काम आते हैं, उनके साथ उसका राग होता है; जिनसे अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि का समावेश जब तक व्यक्ति के जीवन में नहीं होगा, वे समाज में प्रविष्ट हो ही नहीं प्रति वह द्वेष रखता है / लेकिन महावीर का मन जैसे सकते। इसीलिए कहा गया है कि वैयक्तिक साधना ही नियंत्रण में आया उनके लिए अपने और पराये का भेद समाज का अधिष्ठान बनती है। जाता रहा, सब उनके अपने हो गये, सबके साथ उनका भगवान महावीर के 2500 वें निर्वाण महोत्सव आत्मीयता का नाता जुड़ गया। वह वीतराग और को मनाने की योजना बनाते समय एक कमी यह रह वीत-द्वेष हो गये। उनके अन्तस में सबके प्रति प्रेम का गयी कि महावीर के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित निर्मल-पावन स्रोत फूट उठा। सबके साथ समता-भाव करने पर जितना बल दिया गया, उतना व्यक्ति के स्थापित हो गया। उन्होंने कहा : / जीवन में उन्हें स्थापित करने पर नहीं दिया गया। "राग-द्वेष ऐसे दो पाप हैं, जो सारे पाप कर्मों को। यही कारण है कि पूरा वर्ष बीत जाने पर भी हमारे जन्म देते हैं।" प्रयत्नों का प्रत्यक्षतया विशेष परिणाम सामने नहीं आ "राग द्वष को पैदा करने में शब्द, रूप, गन्ध, पाया / रस और स्पर्श ये पाँच वस्तुएँ विशेष सहायक होती सन्दर्भ कितने ही बदलें लेकिन महावीर के सिद्धांत हैं।" महावीर ने उस सम्बन्ध में मानव की दुर्बलता को हिमालय की तरह अटल हैं, गंगा की तरह पावन हैं / ध्यान में रखकर मार्ग सुझाते हुए कहा / अतः हम स्मरण रखें कि भगवान महावीर को जब तक "शब्द श्रोतेन्द्रिय का विषय है। कान में पड़े हुए अपने आन्तरिक जीवन में प्रतिष्ठित नहीं करेंगे तब शब्दों को न सुनना शक्य नहीं। काम में पड़े हए शब्दों तक न हमारा मंगल हो सकता है, न समाज का, न में राग-द्वेष का परित्याग करो। राष्ट्र का। 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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