Book Title: Vaishalinayak Chetak aur Sindhu Sauvir ka Raja Udayan Author(s): Jinvijay Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 5
________________ श्राचार्य मुनिजिनविजय : वैशालीनायक चेटक और सिंधुसौवीर का राजा उदायन : २८३ अपर नाम महासेन है. उदायन ने महासेन पर किन कारणों से चढ़ाई की थी, उसे किस प्रकार पराजित कर दसपुर ले आया था और दसपुर की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, उसका सारा वृतान्त आवश्यक चूर्णि में है जिसका सारात्मक अंश यह है : "एक समय कुछ मुसाफिर समुद्र की यात्रा करते थे. उस समय में जोरों का तूफान आया जिसके कारण जहाज डांवाडोल हो गया. वह आगे बढ़ता ही नहीं था. इस अवस्था से लोग घबरा गये. लोगों की यह स्थिति देखकर एक देव के दिल में उनके प्रति दया आई. उसने जहाज को तूफान से निकाल कर एक सुरक्षित जगह पहुंचा दिया. देव ने स्वनिर्मित चन्दनकाष्ठ की प्रतिमा, जो काष्ठपेटिका में बन्द थी, उन्हें दी और कहा -- यह भगवान् महावीर की काष्ठ प्रतिमा है. यह महाप्रभावशाली है. इसके प्रभाव से आप लोग सही सलामत समुद्रयात्रा पूरी कर सकेंगे. इतना कह देव चला गया. कुछ दिनों के बाद जहाज सिन्धुसौवीर के किनारे पर पहुँचा. लोगों ने वह मूर्ति वीतिभय के राजा उदायन को भेट में दी. उदायन और उसकी रानी प्रभावती ने अपने ही महल में मन्दिर का निर्माण कर उसमें वह मूर्ति स्थापित की और उसकी प्रतिदिन पूजा भक्ति करने लगी. राजा पहले तो तापसधर्मी था, धीरे-धीरे उसकी उस मूर्ति की ओर श्रद्धा बढ़ने लगी. एक दिन रानी प्रभावती मूर्ति के सामने नृत्य कर रही थी और उदायन वीणा बजाता था. उस समय राजा नृत्य करती हुई रानी प्रभावती के देह को विना मस्तक के देखकर अधीर हो उठा और उसके हाथ से बीणा का गज छूट गया. वीणा बजनी बंद हो गई. सहसा बीणा को बन्द देखकर रानी क्रोध में आकर बोली- क्या मैं खराब नृत्य कर रही थी जो आपने वीणा बजाना ही बंदकर दिया ? उदायन ने रानी के बार बार आग्रह से सत्य बात कह दी. उदायन से यह बात सुन वह सोचने लगी- "अब मेरा आयुष्य अल्प है, अतः मुझे अपना श्रेय करना चाहिए." उसने उदायन से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी. लेकिन रानी के प्रति अधिक अनुराग होने से उसने आज्ञा नहीं दी. किन्तु रानी के उत्कट वैराग्य को देखकर अन्त में एक शर्त के साथ उसे प्रव्रज्या की आज्ञा देदी. वह शर्त यह थी कि 'अगर मेरे पहले ही स्वर्ग चली जाओ तो देव बन कर मुझे प्रतिबोधित करने के लिये अवश्य आना होगा. उसने शर्त मान ली. प्रभावती दीक्षित हो गई. रानी मर कर देव बनी और उसने अपनी पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार राजा को सद्बोध दिया और राजा अधिक धर्मनिष्ठ बना. Jain Educat रानी की मृत्यु के बाद महावीर की मूर्ति की देखभाल और पूजा एक कुब्जा दासी करने लगी. इस प्रतिमा की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी, और लोग दूर-दूर से उसके दर्शन के लिये आते थे. एक बार गंधर्व देश का कोई श्रावक प्रतिमा के दर्शन के लिये आया. दासी ने उस श्रावक की सेवा खूब की. श्रावक दासी की भक्ति भाव से एवं सेवा शुश्रूषा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उससे संतुष्ट होकर उसे मनोवांछित फल देने वाली बहुत सी गोलियाँ दीं. गोलियों के भक्षण से दासी का कुबड़ापन मिट गया और उसे अपूर्व सौंदर्य मिला. शरीर सोने की कांति की तरह चमकने लगा. सोने जैसा शरीर होने से इसे लोग सुवर्णगुटिका कहने लगे, सुर्वर्णगुटिका के देवी सौंदर्य की बात प्रद्योत के कानों तक पहुंच गई. वह उस पर मुग्ध हो गया. इधर दासी भी प्रद्योत से प्रेम करती थी. उसने उज्जैनी के राजा प्रद्योत के पास एक दूत भेजा. दूत ने प्रद्योत से जाकर कहा—सुवर्णगुटिका आपसे प्रेम करती है और आपको बुलाती है. राजा प्रद्योत अवसर पाकर एक दिन अपने नलगिरि हाथी पर चढ़कर तुरन्त आया. दोनों एक दूसरे को पाकर बहुत प्रसन्न हुए. प्रद्योत सुवर्णगुटिका को और महावीर की प्रतिमा को लेकर रातोंरात वापिस लौट गया. दासी जाते समय वैसी ही एक दूसरी प्रतिमा तैयार करवाकर उसके स्थान पर रखती गई. प्रातःकाल राजा के सिपाहियों ने देखा कि मार्ग पर नलगिरि हाथी की लीद और मूत्र पड़े हैं जिसकी गंध से नगर के हाथी उन्मत्त हो उठे हैं. थोड़ी दूर चलने पर उन्हें नलगिरि के पदचिह्न दिखाई पड़े. इतने में मालूम हुआ कि राजा की दासी लापता है और चन्दन की प्रतिमा के स्थान पर कोई दूसरी प्रतिमा रक्खी हुई है. यह समाचार जब राजा उदायन के पास पहुँचा तो उसे बहुत क्रोध आया. उसने प्रद्योत के पास समाचार भेजा कि दासी की मुझे चिन्ता नहीं, तुम चन्दन की प्रतिमा लौटा दो. परन्तु प्रद्योत प्रतिमा देने को तैयार नहीं हुआ. उदायन अपनी mobrary.orgPage Navigation
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