Book Title: Vadiraj suri ke Jivan vrutt ka Punarnirikshan Author(s): Ajaykumar Jain Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 3
________________ वादिराजसूरि के जीवनवृत्त का पुनरीक्षण २०९ यहाँ वादिराज के गुरु का नाम कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) कहा है और अन्यत्र मतिसागर निर्दिष्ट है। इसका समाधान यही हो सकता है कि कदाचित् मतिसागर वादिराज के दीक्षागुरु थे और कनकसेन वादिराज ( हेमसेन ) विद्यागुरु। श्री नाथूराम प्रेमी का भी यही मन्तव्य है।' साध्वी संघमित्रा जी ने वादिराज के सतीर्थ का नाम अनेक बार दयालपाल लिखा है। जो संभवतः मुद्रण दोष है क्योंकि उनके द्वारा प्रदत्त सन्दर्भ मल्लिषेणप्रशस्ति में भी दयापालमुनि ही आया है । . वादिराज कवि का मूल नाम था या उपाधि--इस विषय में पर्याप्त वैमत्य है। श्री नाथूराम प्रेमी की मान्यता है कि उनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा, वादिराज तो उनकी उपाधि है और कालान्तर में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये। टी० ए० गोपीनाथ राव ने वादिराज का वास्तविक नाम कनकसेन वादिराज माना है। इसका कारण यह हो सकता है कि कीथ, विन्टरनित्ज आदि कुछ पाश्चात्य इतिहासज्ञों ने कनकसेन वादिराज कृत ९६ पद्यात्मक एवं ४ सर्गात्मक यशोधरचरित नामक काव्य का उल्लेख किया है। किन्त यह भ्रामक है। विभिन्न शिलालेखों में कनकसेन वादिराज और वादिराज का पृथक्-पृथक् उल्लेख हुआ है। एक अन्य शिलालेख में जगदेकमल्ल वादिराज का नाम वर्धमान कहा गया है।' वादिराजसूरि द्वारा विरचित एकीभावस्तोत्र ( कल्याणकल्पद्रुम) पर नागेन्द्रसूरि द्वारा विरचित एक टीका उपलब्ध होती है । टीकाकार के प्रारम्भिक प्रतिज्ञा वाक्य में स्पष्ट रूप से वादिराज का दूसरा नाम वर्धमान कहा गया है श्रीमद्वादिराजापरनामवर्धमानमुनीश्वरविरचितस्य परमाप्तस्तवस्यातिगहनगंभीरस्य सुखावबोधार्थं भव्यासु जिघृक्षापारतन्त्र निभूषणभट्टारकैरूपरुद्धो नागचन्द्रसूरियथाशक्ति छायामात्रमिदं निबन्धनमभिधत्ते।"८ किन्तु यह टीका अत्यन्त अर्वाचीन है। टीका की एक प्रति झालरापटन के सरस्वती भवन में है। यह प्रति वि० सं० १६७६ (१६१९ ई० ) में फाल्गून शुक्ला अष्टमी को मण्डलाचार्य यशःकीर्ति के शिष्य ब्रह्मदास ने वैराठ नगर में आत्म पठनार्थ लिखी थी।' १. द्रष्टव्य-श्री नाथ राम प्रेमी द्वारा लिखित 'वादिराज सूरि' लेख । जैन हितैषी भाग ८ अंक ११ पृ० ५१५ २. जैन धर्म के प्रभावक आचार्य ( द्वितीय संस्करण ) वादिगजपंचानन आचार्य वादिराज ( द्वितीय ), पृ० ५७० ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७८ ४. इंट्रोडक्शन टू यशोधरचरित पृ० ५। ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास (कीथ, अनु०-मंगलदेव शास्त्री) पृ० ११७ एवं जैनिज्म इन दी हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर-एम० विन्टरनित्ज पृ० १६ ६. जैन शिलालेख संग्रह, भाग १ लेखांक ४९३ ७. वही, भाग ३ लेखांक ३४७ ८. द्रष्टव्य-सरस्वती भवन, झालरापाटन की हस्तप्रति का प्रारम्भिक प्रतिज्ञावाक्य ९. वही अन्त्यप्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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