Book Title: Uttam Satya Author(s): B S Kulkarni Publisher: Z_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf View full book textPage 6
________________ References 1. Umaswati : Tattwasthsutra, Chapter 9. 2. Keshiraj : Sabdamani darpana Pithika Sandhi, Mangalore, poem 1. "अनुकूल पवननिन् जी। वनिष्टदिम् नाभिमूलदोल रु?लेय पां / / गिनवोल शब्दद्रव्यं / जनयिसुगुम् श्बेतमदर कार्यं शब्दम् / / " 3. Ranna : Ajitanathpurana. (ed. Ramanayacharya), Mysore, 1910, pp. 162 सारांश उत्तम सत्य डॉ० बी० एस. कुलकर्णी, कन्नड़ शोध संस्थान, धारवाड़ जैनधर्म एक प्राचीन धर्म है / इसमें छह द्रव्य और सात तत्त्वोंकी प्रक्रियासे लोककी व्याख्या की गई है / इसमें आत्माको अनन्तचतुष्टयी बताया गया है / यही आत्मा लोकान्त में सिद्धशिला पर विराजता है / लेकिन संसारी आत्माकी गति विचित्र है। वह अनादि कालसे चारों गतियोंमें भटक रहा है। उसका उद्देश्य यह है कि वह अपने शुभ प्रयत्नों से कर्म-बन्धोंसे विलग होकर अनन्तचतुष्टयी रूपको प्राप्तकर परम सुखको प्राप्त करे और सिद्धशिला पर विराजे। अपनी बुद्धि के कारण मनुष्य सभी प्राणियोंमें श्रेष्ठ है और वही अपने प्रयत्नोंसे यह लक्ष्य प्राप्त कर सकता है / उसकी लक्ष्य प्राप्ति केवल धर्मसे ही हो सकती है। सामान्यतः धर्मको ब्रतों और नियमोंके रूपमे माना जाता है / लेकिन केवल इन वाह्य रूपोंसे ही कर्मबंध दूर नहीं होता। इसके लिए धर्मके मन-वचन-काय परिमार्जक उत्तम क्षमादिक दश रूपोंका पालन आवश्यक है। इसमें उत्तम सत्य भी एक है / सत्यका सम्बन्ध विचारों और वचनों या भाषासे संबंधित है। फलतः यह प्रक्रिया केवल मनुष्य जातिसे सम्बन्धित है। मानवकी भाषा वचनरूप कर्माणुओंके कारण होती है। ये वचन कर्माणु द्रव्य होते हैं और सफेद (नीरंग) होते हैं। सत्यको आत्माका धर्म बताया गया है / भगवान्की वाणी 'दिव्य ध्वनि' कही गयी है। इन प्रकरणोंमें शब्द शुद्ध और सरल होते हैं। ये बच्चोंके समान सत्य होते हैं / लेकिन संसारी मनुष्यके शब्दों में यह शुद्धता कहाँ ? वह तो कषायोंके चक्रमें सत्य शब्द भूल गया है / सत्यको इस इस प्रकार बोलना चाहिये जिससे दूसरोंको कष्ट न हो / विषम परिस्थितियोंमें मौन ही श्रेयस्कर है / लेखकने महापुराणकी कथासे इस तथ्यको प्रमाणित किया है। लेखकने रन्न कविके अनुसार चार प्रकारके मनुष्योंका भी निरूपण किया है : प्रिय-प्रिय, कटु-प्रिय, प्रिय-कट, कटु-कटु / हमें अन्तिम दो कोटियों के मनुष्योंसे सावधान रहना चाहिये और स्वयंको प्रथम कोटिका बननेका यत्न करना चाहिये / इसके लिए शुद्ध सत्य बोलनेका अभ्यास करना चाहिये / सत्य ही धर्म है, यह ‘सत्यं वद, धर्म चर' से भी प्रकट होता है / सत्यसे आत्मा परमात्मा बनता है। - 190 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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