Book Title: Tumha Vinaymessejja
Author(s): D S Baya
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

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Page 1
________________ पूर्व कर्नल डॉ दलपतसिंह बया 'श्रेयस' कर सके उसके द्वारा उससे संपूर्ण वांछित ज्ञान को प्राप्त कर पाना संदिग्ध ही रहता है। धर्म-साधना के क्षेत्र में भी सफलता और विफलता के बीच की सीमा-रेखा गुरु-शिष्य संबंधों में विनय से होकर ही गुजरती है। संभवतया इसी को लक्ष्य करके भगवान महावीर ने भी शिष्य-गुणों में विनय को सर्वोपरि स्थान दिया है। विनयी शिष्य के लक्षण - विनय एक आंतरिक गुण है जिसकी बाह्य अभिव्यक्ति ही व्यवहार में दिखाई देती है। विनय का आंतरिक गुण इतने सूक्ष्म भावनात्मक स्तर पर होता है कि इसे शब्दों की परिधि में बांधना कदाचित संभव न हो सके अत: उत्तराध्ययनसूत्र में भी इसका वर्णन अभिव्यक्त व्यावहारिक गुणों के माध्यम से ही किया गया है। यह तो स्पष्ट ही है कि अविनय विनय का विलोम-प्रतिलोम है अत: विनयी के गुणों का वर्णन करते हुए शास्त्रकार - आर्य सुधर्मा ने अविनयी के दुर्गुणों की भी यह कहकर सहायता ली है कि विनयी शिष्य में इन विनय के व्यावहारिक गुणों के सद्भाव के साथ-साथ इन दुर्गुणों का अभाव भी अपेक्षित है। तम्हा विणयमेसेज्जा... विनयी शिष्य के व्यक्तित्व में सरलता, अहंकारशून्यता, विनय - विनम्रता, निर्दोषिता व अनाग्रहिता गुणों के समावेश के साथ-साथ विनय की चर्चा छिडते ही हमारे मन-मस्तिष्क में एक ऐसे कठोरता, दंभ, उग्रता, वाचालता, विद्रोह व आक्रामकता आदि व्यक्ति की छवि उभरती है जो अत्यंत शिष्ट. विनम्र, मितभाषी दुर्गुणों का अभाव भी होना चाहिये। व मृदुभाषी हो तथा अपने गुरुजनों के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित विनयी शिष्य के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं हो। 'उत्तराध्ययनसूत्र', भगवान महावीर की अंतिम देशना, जिसे कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में रहकर, उनकी भाव-भंगिमाओं उन्होंने स्वेच्छा से अपने किसी भी शिष्य की पृष्छा के बिना ही वसंकेतों से उनके मनोगत भावों को समझकर उनकी आज्ञा का व्याकृत किया था, का प्रथम अध्याय है ‘विनय-श्रुत', जिसमें पालन करता है, वह विनीत कहलाता है। इसके विपरीत जो उन्होंने विनय की महत्ता को प्रतिपादित किया है। इससे स्पष्ट शिष्य गुरु के सान्निध्य में नहीं रहता है, उनकी परवाह नहीं करता प्रतिभासित होता है कि वे साधक के लिये 'विनय' को अन्य है, उनकी आज्ञा का उल्लंघन करता है तथा आम तौर पर उनके सभी गुणों की अपेक्षा उच्चतर स्थान पर रखते हैं। यद्यपि इस विपरीत आचरण करता है वह अविनीत कहलाता है। अध्याय में कहीं भी विनय को परिभाषित नहीं किया गया है फिर विनयी शिष्य के लिये कुछ आचरणीय गुणों का उल्लेख भी इसमे विनया शिष्य के इतन लक्षणा का वर्णन किया गया करते हुए आर्य सुधर्मा कहते हैं कि वह गुरु के पास प्रशांत भाव है कि विनय, की परिभाषा स्वत: उभरकर सामने आ जाती है। से रहे. वाचाल न बने, अर्थपूर्ण ज्ञान ग्रहण करे, निरर्थक बातों विनय की महत्ता को सभी स्वीकार करते हैं। जब यह कहा में समय नष्ट न करे, क्रोध न करे, क्षमा को धारण करे, आवेश जाता है कि 'विद्या ददाति विनयम्'। तो विद्या, ज्ञान और विनय में न आए तथा कभी भी गुरु के विपरीत आचरण न करे। विनयी का अंतरंग संबंध स्पष्ट होता ही है, यह भी स्पष्ट होता है कि जो शिष्य बिना पूछे कुछ न बोले तथा पूछे जाने पर भी असत्य न विद्या व्यक्तित्व में विनय का विकास न करे, वह व्यर्थ ही है। बोले एवं वह गुरु की प्रिय तथा अप्रिय दोनों ही शिक्षाओं को यूँ तो विनय का महत्त्व जीवन के सभी पड़ावों पर समान समान भाव से धारण करे। अध्ययनकाल में वह आवश्यक रुप रूप से पड़ता ही है, विद्यार्थी जीवन में इसका विशेष महत्त्व है से अध्ययन करे तत्पश्चात् एकांत में जाकर ध्यान (पढ़े हुवे ज्ञान क्योंकि जब तक शिष्य अपने विनय-गुण से गुरु को प्रसन्न नहीं पर मनन व चिंतन) करे। गुरु के प्रति विनय-विनम्रता का आग्रह 0 अष्टदशी / 1520 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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