Book Title: Terapanth ki Agrani Sadhwiya
Author(s): Madhusmitashreeji
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ ८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड पुरुष का स्पर्श नहीं करती। छूना मत।" सामान नीचे रख दिया। एक वृत्त बनाकर सभी साध्वियाँ बैठ गयीं । महासती दीपांजी उनके बीच में बैठ गयीं। उच्च स्वर से नमस्कार महामन्त्र का जाप शुरू कर दिया, लुटेरे ने समझा यह तो किसी देवी आराधना कर रही है, न मालूम मेरी क्या दशा कर देगी। वह डरकर सामान छोड़कर भाग गया। आपका जन्म स्थान जोजावर था। आचार्य भारमलजी के हाथों १६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली । ५० वर्ष तक साधना कर वि० सं० १९१८ की भाद्रपद कृष्णा ११ को आमेट में २० प्रहर के अनशनपूर्वक स्वर्ग सिधारी। २. महासती सरदारांजी-संकल्प में बल होता है और आशा में जीवन । सरदारां सती का जीवन संकल्प और आशा की रेखाओं का स्पष्ट चित्र है। वि० सं० १८६५ में चूरू में आपका जन्म हुआ। दस वर्ष की बाल्यावस्था में विवाह हुआ। चार मास पश्चात् पति का वियोग सहन करना पड़ा। सुकुमार हृदय पर बज्राघात लगा। उसी वर्ष मुनि श्री जीतमलजी का चातुर्मास चूरू में हुआ। सरदार सती ने उस पावस में अपनी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान पा तत्वों को मान, तेरापंथ की श्रद्धा स्वीकार की। १३ वर्ष की अवस्था में यावज्जीवन चौविहार का व्रत ले लिया, सचित्त त्याग आदि अनेक प्रत्याख्यान किए, विविध प्रकार का तप करके आपने साधना पक्ष को परखा। दीक्षा ग्रहण की भावना उत्कट हई । पारिवारिक जनों के बीच अपनी भावना रखी। स्वीकृति न मिलने पर सरदारसती ने अनेकों प्रयास किए, सब कसौटियों पर खरी उतरने के पश्चात् दोनों पारवारों से अनुज्ञा प्राप्त हुई । दीक्षा श्रीमज्जाचार्य के हाथों सम्पन्न हुई। लूंचन अपने हाथों से किया । प्रथम बार आचार्यश्री रामचन्दजी के दर्शन किए तब औपचारिक रूप से अग्रगण्या बना दिया । दीक्षा के १३ वर्ष बाद आपको साध्वीप्रमुखा का पद मिला। जयाचार्य को आपकी योग्यता व विवेक पर विश्वास था। प्रखर बुद्धि के कारण एक दिन में २०० पद्य कंठस्थ कर लेती थीं। सहस्रों पद कंठस्थ थे । उन दिनों साधु-साध्वियों का हस्तलिखित प्रतियों पर अपना अधिकार था। महासती सरदारांजी ने एक उपाय ढूंढ़ निकाला । सारी पुस्तके सरदारसती को अर्पित की गई। सरदारसती ने सारी पुस्तके जयाचार्य को भेंट कर दी। जया चार्य ने आवश्यकतानुसार सबका संघ में वितरण कर दिया। विवेक और बुद्धि कौशल के आधार पर ही उन्होंने साध्वियों के हृदय परिवर्तन कर अनेक ग्रुप तैयार किये, जिन्हें तेरापंथ की भाषा में सिंघाड़ा कहते हैं । जयाचार्य का आदेश पा आपने एक रात्रि में ५२ साध्वियों के १० संघाटक तैयार कर श्रीमज्जाचार्य से निवेदन किया । आचार्यश्री आपकी कार्य-कुशलता व तत्परता पर बहुत प्रसन्न हुए। आहार के समविभाग की परम्परा का श्रेय भी सरदारसती को ही है। साधु जीवन में विविध तपस्याएँ की, अनेक साध्वियों को प्रोत्साहित किया। अन्त में वि० सं० १९२७, पौष कृष्णा ८ को आजीवन अनशन (पाँच प्रहर के अनशन) में आपका स्वर्गवास हआ। ३. महासती गुलाबांजी-हृदय में कोमलता, भाषा की मधुरता और आँखों की आर्द्रता-ये नारी के सहज गुण हैं । साध्वी श्री गुलाबांजी में इनके साथ-साथ व्यक्तित्व का सुयोग भी था। जिसका जीवन विवेक रूपी सौन्दर्य से अलंकृत है । वही वास्तव में सुन्दर है, महासती गुलाबांजी में बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के सौन्दर्य का सहज मेल था। शरीर की कोमलता, अवयवों की सुन्दर संघटना, गौरवर्णऐसा था उनका बाह्य व्यक्तित्व । मिलनसारिता, विद्वत्ता, सौहार्द, वात्सल्य और निश्छलभाव--यह था आपका आन्तरिक व्यक्तित्व। आपकी दीक्षा जयाचार्य के करकमलों से हुई। महासती सरदारांजी से संस्कृत व्याकरण तथा काव्य का अध्ययन किया । मेधावी तीव्रता और ग्रहण-पटुता से कुछ समय में ही विदुषी बन गयी। श्रीमज्जयाचार्य ने भगवती सूत्र की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका करनी प्रारम्भ की। आचार्यश्री पद्य फरमाते और आप एक बार सुनकर लिपिबद्ध कर लेती । एक समय में ६, ७ पद्यों को सुनकर याद रख लेतीं । आपकी लिपि सुघड़ और स्पष्ट थी। आपने अनेकों ग्रन्थ लिपिबद्ध किए। व्याख्यान कला बेजोड़ थी। कण्ठ का माधुर्य रास्ते में चलते पथिक को रोक लेता था। वि० सं० १९२७ में साध्वीप्रमुखा का कार्यभार संभाला । १५ वर्ष तक इस पद पर रही । आपके अनुशासन में वात्सल्य मूर्तिमान था। समस्त साध्वी-समाज का विश्वास आपको प्राप्त था। आपका स्वर्गवास १९४२ की पौष कृष्णा नवमी को हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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