Book Title: Tattvarthasara
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ २२१ तत्त्वार्थसार हुआ करता है । यद्यपि आत्मा स्वभावतः अमूर्तिक ही है, फिर भी चूंकि वह अनादि काल से कर्म के साथ सम्बद्ध हो रहा है, अतएव एक साथ गलाये गये सुवर्ण और चांदी में जिस प्रकार एकरूपता देखी जाती है उसी प्रकार अनादि से जीव के व कर्म के प्रदेशों के एक क्षेत्रावगाह होकर परस्पर में अनुप्रविष्ट होने से उन दोनों में भी एकरूपता होती है। इस कारण मूर्त कर्म के साथ एकमेक होने से पर्याय की अपेक्षा आत्मा कथंचित् मूर्त भी है । तब वैसी अवस्था में कर्म का बन्ध उसके असम्भव नहीं है। हां, जो जीव उस अनादि कर्म बन्ध से रहित (मुक्त ) हो जाता है उसके मूर्तता न रहने से वह कर्मबन्ध अवश्य असम्भव हो जाता है । वह बन्ध प्रकृति, स्थिति, अनुभव (अनुभाग) और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। आगे इन चारों की प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरणादि रूप मूल व उत्तर प्रकृति के भेद, उनके आत्मा के साथ सम्बद्ध बने रहने की कालमर्यादा (स्थिति ), पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभ कर्मों के विपाक तथा सभी भवों में योगविशेष से सर्व कर्म प्रकृतियों के योग्य सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों को आत्मप्रदेशों में आत्मसात् करने रूप प्रदेश का विवेचन किया गया है । ६. संवरतत्त्व-गुप्ति, समिति, धर्म, परीषहजय, तप, अनुप्रेक्षा और चारित्र इन कारणों के द्वारा जो आस्रव का निरोध होता है, इसे संवर कहते हैं। आगे इन संवर के कारणों की क्रम से प्ररूपणा करते हुए इस अधिकार को समाप्त किया गया है । ७. निर्जरातत्त्व-उपार्जित कर्मों का आत्मा से पृथक् होना, इसका नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है--विपाकजा और अविपाकजा । कर्मबन्ध की परम्परा बीज और अंकुर की परम्परा के समान अनादि है । पूर्वबद्ध कर्म का उदय प्राप्त होने पर जो वह अपना फल देकर क्षीण होता है, इसे विपाकजा निर्जरा कहते हैं। तथा जो कर्म उदय को प्राप्त न होकर तप के प्रभाव से उदयप्राप्त कर्म की उदयावली में प्रविष्ट कराकर वेदा जाता-अनुभव में आता है, उसे अविपाकजा निर्जरा कहा जाता है। जैसेकटहल आदि फलों को पाककाल के पूर्व में ही उपाय द्वारा पका लिया जाता है, इसी प्रकार कर्म का भी परिपाक समझना चाहिए । इनमें विपाकजा निर्जरा तो सभी प्राणियों के हुआ करती है, किन्तु अविपाकजा तपस्वियों के ही हुआ करती है। आगे निर्जरा के कारणभूत उस तप के प्रसंग में क्रम से अवमोदर्य, उपवास, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्या, कायक्लेश और विविक्तशय्यासन इन छह बाह्य तपों का तथा स्वाध्याय, शोधन (प्रायश्चित्त), वैयावृत्य, व्युत्सर्ग, विनय और ध्यान इन छह अभ्यन्तर तपों की प्ररूपणा की गई है। ८. मोक्षतत्त्व—बन्ध के कारणों के अभाव (संवर ) और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा के हो जाने से जो समस्त कर्मों का विनाश हो जाता है, इसे मोक्ष कहते हैं। सयोगकेवली के योग का सद्भाव होने से जो एकमात्र सातावेदनीय का बन्ध होता था, योग का अभाव हो जाने से अयोगकेवली के वह भी नहीं होता। इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय हो जाने से आत्मस्वरूप की जो प्राप्ति हो जाती है, इसी का नाम मोक्ष है। कर्मक्षय के साथ मुक्त जीवों के औपशमिकादि भावों का तथा भव्यत्त्व का भी अभाव हो जाता है, उनके उस समय सिद्धत्व, सम्यक्त्व, ज्ञान और दर्शन ये विद्यमान रहते हैं। कर्मबन्ध की परम्परा यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8