Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 458
________________ ८. २४. प्रदेशबन्धका वर्णन ____ उदय-प्रत्येक कर्म का फल काल निश्चित रहता है। इसके प्राप्त होने पर कर्म के फल देनेरूप अवस्था की उदय संज्ञा है। फल देने के बाद उस कर्म की निर्जरा हो जाती है। आत्मा से जितने जाति के कर्म सम्बद्ध रहते हैं वे सब एकसाथ अपना काम नहीं करते। उदाहरणार्थ साता के समय असाता अपना काम नहीं करता। ऐसी हालत में असाता प्रति समय सातारूप परिणमन करता रहता है और फल भी उसका सातारूप ही होता है। प्रति समय यह क्रिया उदय काल के एक समय पहले हो लेती है । इतना सुनिश्चित है कि बिना फल दिये कोई भी कर्म जीर्ण नहीं होता। ____ उदीरणा-फल काल के पहले कर्म के फल देनेरूप अवस्था की उदीरणा संज्ञा है। कुछ अपवादों को छोड़कर साधारणतः कर्मों का उदय और उदीरणा सर्वदा होती रहती है। त्यागवश विशेष होती है। उदीरणा उन्हों कर्मों की होती है जिनका उदय होता है। अनुदय प्राप्त कर्मों की उदीरणा नहीं होती। उदाहरणार्थ जिस मुनि के साता का उदय है उसके अपकर्पण साता और असाता दोनों का होता है किन्तु उदीरणा साता की ही होती है। यदि उदय बदल जाता है तो उदीरणा भी बदल जाती है इतना विशेष है। ____ उपशान्त-कर्म की वह अवस्था जो उदीरणा के अयोग्य होती है उपशान्त कहलाती है। उपशान्त अवस्था को प्राप्त कर्म का उत्कपण, अपकर्पण और संक्रमण हो सकता है किन्तु इसकी उदीरण नहीं होती। निधत्ति-कर्म की वह अवस्था जो उदीरणा और संक्रमण इन दो के अयोग्य होती है निधत्ति कहलाती है। निधत्ति अवस्था को प्राप्त कर्म का उत्कर्षण और अपकर्षण हो सकता है किन्तु इसका उदीरणा और संक्रम नहीं होता। निकाचना-कर्म की वह अवस्था जो उत्कर्षण, अपकर्षण,उदीरणा

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