Book Title: Tattvartha Sutra
Author(s): Umaswati, Umaswami, 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 60
________________ मोहक्षपकोपशमकोपशांतमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।।४५।। १ सम्यग्दृष्टि, २ श्रावक, ३ विरत (महाव्रतीमुनी), ४ अनंतानुबंधी का विसंयोजन करने वाला, ५ दर्शन मोह को नष्ट करनेवाला, ६ चारित्र मोह का शमन करनेवाला, ७ उपशांत मोह वाला, ८ क्षपकश्रेणी चढ़ता हुआ, ९ क्षीण मोही, १० जिनेन्द्र भगवान् इस सब के क्रम से उत्तरोत्तर असंख्यात गणी निर्जरा होती है। पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नात का निर्ग्रन्था:।।४६ ।। १ पुलाक, २ वकुश, ३ कुशील, ४ निर्ग्रन्थ, ५ स्नातक ये पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थ दिगम्बर साधु होते हैं। संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिंग लेश्योपपादस्थानविकल्पत:साध्या:।।४७।। १ संयम, २ श्रुत, ३ प्रति सेवना, ४ तीर्थ, ५ लिंग, ६ लेश्या, ७ उपपाद, ८ स्थान इन आठ प्रकार के भेदों से भी पुलाकादि मुनियों के और भी भेद होते हैं। इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रेनवमोऽध्यायः। अध्याय १० मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् ।।१।। मोहनीय कर्म के क्षय होने के पश्चात् तथा ज्ञान दर्शनावरण और अंतराय कर्म के क्षय होने से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। बन्धहेत्वभाव निर्जराभ्यांकृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष: बंध के कारणों के अभाव होने से तथा निर्जरा से समस्त कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाना सो मोक्ष है।

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