Book Title: Tattvamivyakti Nirbadh Shaili Syadwad
Author(s): Rameshmuni
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf

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Page 1
________________ तत्त्वाभिव्यक्ति की निर्बाध जैन दर्शन विश्लेषण प्रधान दर्शन है । विश्लेषण इतना सूक्ष्म एवं गंभीर है कि अध्येता को विस्मय से मुग्ध कर देता है और बौद्धिक चितन के क्षेत्र में बहुमुखी विश्लेषणवाद को प्रथम देता है । एतदर्थं यह प्रत्यक्ष तथ्य है कि जैन दर्शन विश्वजनीनता का सुदृढ़ आधार लिये हुए है । यह दर्शन 'स्याद्वाद के सुदृढ़ स्तंभ पर आधारित है । रमेशमुनि शास्त्री स्याद्वाद यह पद स्यात् और वाद का संयुक्तीकरण है । स्यात् शब्द तिङत पद जैसा प्रतीत होता है । किन्तु वस्तुतः यह एक अव्यय है । जो "किसी अपेक्षा" से इस अर्थ का द्योतक है । " और वाद का अर्थ कथन या प्रतिपादन शैली है। स्याद्वाद की कथन शैली में " स्यात्" शब्द की प्रधानता है । एतदर्थ " स्यात् अस्ति घट: ", " स्यात् नास्ति घट : " जैसे वाक्यों का प्रयोग होता है । इस प्रकार स्याद्वाद पद का वाच्य अर्थ हुआ-भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से पदार्थ प्रतिपादन करना। स्याद्वाद सिद्धान्त सत्य के प्रत्येक पहलू का परिज्ञान कराता है। इसमें विविध दृष्टि बिन्दुओं से पदार्थ की यथार्थता का कथन किया जाता है। वास्तव में जड़ और चेतन में अनन्त गुण धर्म विद्यमान हैं । इन समग्र गुण धर्मो का कथन एक साथ कोई भी नहीं कर सकता है । विवक्षानुसार ही एक समय में किसी एक धर्म को केन्द्रित करके कहा जा सकता है। इसे ही दार्शनिक भाषा में सापेक्षवाद भी कहते हैं। २८ १. (क) सर्वधात्य निषेध को नेकान्तता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः पंचास्तिकाय टीका । Jain Education International (ख) वाक्यध्वन कान्त द्याती गम्यं प्रति विशेषकः । स्यान्निपातार्थं या गित्वात्तस्य केवलिनामपि ।। - आप्तमीमांसा १०३ शैली: स्याद्वाद सत्य या तत्व के प्रकाशन के लिये दो आधार बिन्दु हैं । स्याद्वाद और केवलज्ञान । केवलज्ञान सत्य का साक्षात् बोध प्रदान करता है और स्याद्वाद परोक्ष आगम के माध्यम से और वह भी क्रमिक । केवलज्ञान केवल एकमात्र केवली का बोध है शेष के लिए तो स्याद्वाद ही आलंबन है ।" स्याद्वाद को "संपूणार्थ विनिश्चयी और सकलादेश" कहा गया है । " तात्पर्य यह है कि वह पूर्ण सत्य को प्रस्तुत करने वाला है दूसरी ओर अनेकान्तता से स्याद्वाद संस्कृत हो कर चलता है यह भी कहा गया है। स्याद्वाद सिद्धान्त जो विविध दृष्टि से एक ही वस्तु में नित्यता- अनित्यता, सादृश्य- असदृश्य, वाच्य अवाच्य, सत्-असत्" आदि परस्पर विरोधी गुण धर्मों का अविरोध प्रतिपादन करके उनका तर्कसंगत एवं समन्वय परक प्रकाश को विकीर्ण करता है । जो पदार्थ नित्य प्रतीत होता है, वह अनित्य भी है। जो वस्तु अनित्य है, वह नित्य भी है। तात्पर्य यह है कि जहाँ नित्यता है वहाँ अनित्यता भी है । अनित्यता के अभाव में नित्यता की पहचान नहीं हो सकती है और नित्यता के अभाव में अनित्यता की प्रतीति नहीं हो सकती । एतदर्थ एक की प्रतीति द्वितीय की प्रतीति से ही संभव है। २. तत्व ज्ञान प्रमाणं ते युगपत्सर्व भासनम् । क्रमभावी च यज्ज्ञानं स्याद्वाद नय संस्कृतम् ॥ स्याद्वाद केवल ज्ञानं सर्वं सत्य प्रकाशने । भेद साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ आप्तमीमांसा १०१-१०५ ३. स्याद्वाद सकलादेशशो, नयो विकल सर्वथा । ४. अनेकान्तात्मकार्थकथनं स्याद्वाद —लघोयस्ययः ६२ ५. स्यान्नाशि नित्यं सदृशं विरूपं वाच्यं न वाच्यं सदसत् देव । श्लोक-५ अन्ययोग For Private & Personal Use Only राजेन्द्र- ज्योति www.jainelibrary.org

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