Book Title: Tathakathit Harivanshchariyam ki Vimalsuri kartuta Ek Prashna
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 3
________________ गाथा “बुहयणसहस्सदयियं" आदि आती है । स्व० प्रेमीजीने इसका अर्थ किया है "मैं हजारों बुधजनों को प्रिय हरिवंशोत्पत्तिकारक प्रथम वन्दनीय और विमलपद हरिवंश की वन्दना करता हूँ"। इसके बाद ही वे अनुमान करते हैं कि इस गाथामें जो विशेषण दिये गये हैं वे हरिवंश और विमल पद ( विमलसूरिके चरण अथवा विमल हैं पद जिसके ऐसा ग्रन्थ ) दोनों पर घटित होते हैं और निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि विमलसूरि कृत एक हरिवंश काव्य है । जो अभी तक अप्राप्य है । उस प्रारंभिक स्थिति में जब कि कुवलयमालाकी एकमात्र प्रति उपलब्ध थी, उक्त पाठको चुनोती देना संभव नहीं था पर उक्त गाथाकी स्थितिको देखते हुए अर्थ निकालने की संभावनाको चुनौती दी जा सकती थी । प्रस्तावनागत गाथाओंके क्रमको एक बार हम पुनः देखें तो सहज ही समझ सकते हैं कि विमलांकको स्मरण करने वाली गाथा (सं० ३६ ) के साथ "बुहयणसहस्सदयियं - हरिवंसं चेव विमलपदं" वाली गाथाका क्रम नहीं दिया गया । उन दोनोंके बीच में राजर्षि देवगुप्त वाली गाथा आती है । यदि कुवलयमालाकारको हरिवंशचरियं कर्ता के रूप में विमलसूरि इष्ट थे तो विमलांकके क्रम में ही इस बातका उल्लेख होना था । इससे विमलपiकी पुनरावृत्ति न करना पड़ता पर वैसा न कर उसका उल्लेख एक गाथाके बाद किया है। इस तरह अन्तरसे दी गई गाथामें "हरिवंश चेव विमलपयं " से विमलसूरिकृत हरिवंशका अर्थ निकालना उचित नहीं । यह निष्कर्ष क्रमिक उल्लेखसे ही संभव था न कि व्यतिक्रम द्वारा व्यतिक्रम द्वारा उल्लेख से तो यह सिद्ध होता है कि हरिवंशचरियं विमलसूरिकी कृति नहीं, किसी और की है । गाथाके अर्थको खींच-तानकर की गई संभावनाने कालान्तरमें कैसे तिलका ताड़ रूप धारण कर लिया था यह हम देख चुके हैं । और उससे चल पड़ी अन्ध परम्पराका निराकरण समय रहते होना चाहिये । सौभाग्यसे सन् १९४२ के अन्त में कुवलयमालाकी एक अन्य प्रति जैसलमेर के बृहद् भण्डारसे मुनि जिनविजयजी को ताड़पत्रपर लिखी मिली जिसका लेखनकाल सं० ११३९ था । पूर्व कागजवाली १५वीं शता० की प्रतिके आधारपर डॉ० उपाध्येने कुवलयमालाका एक प्रामाणिक संस्करण तैयार किया जिसका मुद्रण कार्य सन् १९५०-५१ से प्रारंभ हो १९५९में प्रथम भाग मूलकथा ग्रन्थ के रूपमें प्रकाशित हुआ । डॉ० उपाध्येने कागज पर लिखी प्रतिसे ताड़पत्रीय प्रतिको कई कारणोंसे अधिक प्रामाणिक माना हैं, और प्रस्तावना गत “बुहजन सहस्सदयियं" गाथाके 'हरिवंसं चेव विमलपयं की जगह ताड़पत्रीय प्रतिके आधारपर "हरिवरिसं चेव विमलपयं" पाठ निर्धारित किया है । डॉ० उपाध्येने “हरिवंसं चेव" पदको पूर्व चरणके पद ( हरिवंसुप्पत्तिकारकं ) की पुनरावृत्तिके कारण अर्थ में बाधा उपस्थित करने वाला होनेसे त्याज्य बतलाया है और प्राचीन प्रतिके पाठको मान्यकर उक्त गाथाका अर्थ किया है— मैं सहस्र बुधजनके प्रिय तथा हरिवंशोत्पत्तिके प्रथम कारक, यथार्थ में पूज्य ( वन्द्यमपि ) हरिवर्षको उनके विमल पदों (अभिव्यक्ति ) के लिए वन्दना करता हूँ। इससे तो विमलसूरिका हरिवंश कर्तृत्व एकदम निरस्त्र हो जाता हैं। डॉ० उपाध्येने कुवलयमाला द्वितीय भागके टिप्पणों में लिखा है कि उन्होंने इस सम्बन्ध में पं० प्रेमीजीसे उनके जीवनकालमें ही बात की थी और वे उक्त संभावनाको बदलने के पक्ष में थे परन्तु १९५६ में प्रकाशित जैन साहित्य और इतिहासके द्वितीय संस्करणमें अपने वार्धक्यके कारण वे वैसा न कर सके। डॉ. उपाध्येने संभवतः १९५३ के पूर्व उनसे यह बात की होगी क्यों कि तब तक कुवलयमाला के प्रारंभिक फर्मे छप चुके थे । उक्त द्वितीय संस्करणमें डॉ० उपाध्येने अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना लिखी है पर आश्चर्य कि वे उक्त संभावनाका वहाँ कुछ खण्डन भी नहीं कर सके । कुवलयमाला के प्रथम भागके प्रकाशित हो जानेके बाद भी कुछ विद्वानोंने अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्ताव १. पृष्ठ १२६ । १८० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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