Book Title: Tarka Pramana Author(s): Sukhlal Sanghavi Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf View full book textPage 1
________________ तर्क प्रमाण भगवान् महावीर, बुद्ध और उपनिषद्के सैकड़ों वर्ष पूर्व भी ऊह (ऋग० २०. १३१. १०) और तर्क (रामायण ३. २३. १२.) ये दो धातु तथा तजन्य रूप संस्कृत-प्राकृत भाषामें प्रचलित रहे । अागम, पिटक और दर्शनसूत्रों में उनका प्रयोग विविध प्रसंगों में थोड़े-बहुत भेदके साथ विविध अर्थों में देखा - जाता है । सब अर्थों में सामान्य अंश एक ही है और वह यह कि विचारात्मक ज्ञानव्यापार । जैमिनीय सूत्र और उसके शाबरभाष्य आदि व्याख्याग्रन्थों में उसी भावका द्योतक ऊह शब्द देखा जाता है, जिसको जयन्त ने मंजरीमें अनुमानात्मक या शब्दात्मक प्रमाण समझकर खण्डन किया है (न्यायम० पृ० ५८८)। न्यायसूत्र ( १. १, ४०) में तर्कका लक्षण है जिसमें ऊह शब्द भी प्रयुक्त है और उसका अर्थ यह है कि नकोत्मक विचार स्वयं प्रमाण नहीं किन्तु प्रमाणानुकूल भनोव्यापार मात्र है। पिछले नैयायिकोंने तर्कका अर्थविशेष स्थिर एवं स्पष्ट किया है। और निर्णय किया है कि तर्क कोई प्रमाणात्मक ज्ञान नहीं है किन्तु व्यासिज्ञानमें बाधक होनेवाली अप्रयोजकत्वशङ्काको निरस्त करनेवाला व्याप्यारोपपूर्वक व्यापकारोपस्वरूप आहार्य ज्ञान मात्र है जो उस व्यभिचारशङ्काको हटाकर व्यासिनिर्णयमै सहकारी या उपयोगी हो सकता है (चिन्ता० अनु. पृ० २१०; न्याय० वृ०१. १. ४०)। प्राचीन समयसे ही न्याय दर्शनमै तर्कका स्थान प्रमाणकोटिमें नहीं है । न्यायदर्शनके विकासके साथ ही तर्कके अर्थ एवं उपयोगका इतना विशदीकरण हुअा है कि १ 'उपसर्गाद्भस्व ऊहतेः । -पा० सू० ७. ४, २३ । 'नैषा तण मतिरापनेया-कठ० २.६।। २ 'तका जत्थ न विजइ'-आचा० सू० १७० । 'विहिंसा वितक'-मज्मि.. सम्वासवसुस्त २. ६। 'तर्काप्रतिष्ठानात्'-ब्रह्मसू० २. १. ११ । न्यायसू० १. १. ४०। ३ 'त्रिविधश्च ऊहः । मन्त्रसामसंस्कारविषयः।- शाबरभा० ६.१.१ । जैमिनीयन्या० अध्याय ६. पाद १. अधि०१। ४ न्यायसू० १. २. १ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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