Book Title: Tap
Author(s): H U Pandya
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 5
________________ १४३ यद्यपि वैदिक परंपरा में गीता में प्राणसंयम (प्राणायाम) को तप की संज्ञा नहीं दी गई, किन्तु एक विशिष्ट यज्ञ के रूप में उसे अवश्य स्वीकार किया गया । " पतंजलि ने अष्टांगयोग के चतुर्थ अंग में उसे स्थान दिया और हठयोग में तो वह केन्द्र स्थान में ही जा बैठा । यद्यपि जैन मत में मध्यकाल में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में प्राणायाम को चित्तस्थैर्य का . एक उपाय माना । किन्तु उससे प्राचीन आवश्यक निर्युक्ति के समय में उसके प्रति अरुचि बताई गई थी । परवर्ती काल में भी यशोविजयजी ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्राणायाम इन्द्रियजय का निश्चित उपाय नहीं है किन्तु ज्ञानरूप राजयोग ही निश्चित उपाय है ।" तप जैन परम्परा में उपवास के प्रति बड़ी श्रद्धा देखी जाती है । इस परम्परा ने पंचाग्नितप, जलशयन, कन्दमूल आहार आदि बहुत से तपभेदों को छोड़ दिया, जो स्वमत के अनुकूल नहीं थे और चान्द्रायणव्रत, वृक्षवत् स्थिति स्वाध्याय, अमुक ही अन्न का स्वीकार आदि कुछ तप भेदों को स्वीकार किया, जो स्वमत के अनुकूल थे । २. ज्ञानरूप तप - इस विचारधारा का मत है कि ध्येयसिद्धि शरीर को बिना कष्ट दिये भी संभव है । इस धारा का प्रारम्भ उपनिषद् काल में ही हुआ था । आगे बताया गया है कि मुंडकोपनिषद् में ज्ञान को तप माना है । भगवद्गीता में तप को तीन विभागों में विभक्त किया है- शारीरिक, वाचिक और मानसिक । देव ब्राह्मण, गुरु एवं विद्वान् का सत्कार, शौच, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप है । सत्य, प्रिय, हितकारी एवं अनुद्वेगकर ( उद्वेगरहित ) वाक्य वाचिक तप है और मन की प्रसन्नता, मौन, आत्मसंयम एवं भावशुद्धि मानसिक तप है । इससे स्पष्ट है कि गीता पंचाग्नितप आदि घोर तप का अंतर्भाव इन तपभेदों में नहीं करती है, इतना ही नहीं उसने घोर तप की निंदा भी की है । जैसे "घोर तप से शरीरगत ईश्वर को पीड़ा पहुँचती है । ऐसे तपस्वी असुर हैं आदि" । " इन तीन भेदों के प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं- सात्विक, राजसिक और तामसिक । इस तरह गीता में कुल भेद बताये हैं। योग भाष्य में चित्त की प्रसन्नता में बाधा नहीं पहुँचाने वाले तप को स्वीकार किया है । " इस तरह वैदिक परम्परा में दोनों धाराएँ स्वीकृत हुई हैं और आज भी चलती रही हैं । १. भगवद्गीता ४-२९, ३० २. पा० योगसूत्र २ -२९ ३. योगशास्त्र ५-१ से ३१ ४. न च प्राणायामादि हठयोगाभ्यासश्चित्तनिरोधे परमेन्द्रियजये च निश्चितउपायोऽपि, ऊसासं ण णिरंभई [ आ० नि० १५१० ] इत्याद्यागमेन योगसमाधिविघ्नत्वेन बहुलं तस्य निषिद्धत्वात् पा० यो० सू० यशोविजयकृत वृत्ति २-५५ पृ० ३८ ५. कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः । मां चैवान्तः शरीरस्थं तान् विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥ भगवद्गीता १७-६ ६. भगवद्गीता १७-१४ से १९. ६१ ७. तच्च चित्तप्रसादनमबाधमानम् पा० यो० व्यासभाष्य २ - १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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