Book Title: Tantrik Sadhnaye Ek Paryavekshan
Author(s): Rudradev Tripathi
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf

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Page 4
________________ तान्त्रिक-साधनाएँ : एक पर्यवेक्षण १०३ . मत्स्यपुराण में कहा गया है कि विष्णुर्वरिष्ठो देवानां ह्लादानामुदधिर्यथा । नदीनां च यथा गंगा पर्वतानां हिमालयः ॥ तथा समस्तशास्त्राणां तन्त्रशास्त्रमनुत्तमम् । सर्वकामप्रदं पुण्यं तन्त्रं वै देवसम्मतम् ।। जैसे देवताओं में विष्णु, सरोवरों में समुद्र, नदियों में गंगा और पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त शास्त्रों में तन्त्र-शास्त्र सर्वश्रेष्ठ है। वह सर्वकामनाओं का देने वाला पुण्यमय और वेदसम्मत है। ___ "महानिर्वाणतन्त्र" में भी कहा गया है कि गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा आगमोक्ताः कलौ शिवे । नान्यमार्गः क्रियासिद्धिः कदापि गहमेधिनाम् ॥ हे पार्वती ! कलियुग में गृहस्थ केवल आगम-तन्त्र के अनुसार ही कार्य करेंगे। अन्य मार्गों से गृहस्थियों को कभी सिद्धि नहीं होगी। - यही कारण है कि उत्तरकाल में तन्त्रशास्त्र और उसके आधार पर होने वाले प्रयोगों पर श्रद्धापूर्वक विश्वास ही नहीं किया गया अपितु स्वयं प्रयत्न करके सुख-सुविधाएँ भी उपलब्ध की गयी है। यह असत्य नहीं है कि जहाँ जल अधिक होता है वहाँ कीचड़ भी जम जाता है । इसी प्रकार युगों से चले आये तान्त्रिक कर्मों में कुछ सामयिक तथा अन्य देशीय क्रियाकलापों के प्रभाव से पंचमकारोपासना, मलिन प्रक्रियाएँ, हिंसक वत्ति आदि भी बहुधा समाविष्ट हो गयी। इन्द्रिय-लोलुप लोगों ने अपने क्षणिक स्वार्थ को अपनाकर इन बातों को अबोध व्यक्तियों में पर्याप्त विस्तार दिया। फलतः उनका प्रवेश स्थायी हो गया। फिर भी जो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं वे नितान्त शुद्ध उपासना और अध्यात्मतत्त्व पर ही आधारित हैं जिनका संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर लेना भी इस सम्बन्ध में उपयोगी होगा। "कुलार्णवतन्त्र' में 'पंचमकार" के प्रयोग का निषेध करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि मद्यपानेन मनुजो यदि सिद्धि लभेत् वै। मद्यपानरताः सर्वे सिद्धि गच्छन्तु मानवाः ।। मांसमक्षणमात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत् । लोके मांसाशिनः सर्वे पुण्यभाजो भवन्ति हि ॥ यदि मद्यपान करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त करता हो, तो सभी शराबी सिद्ध बन जायेंगे और यदि मांसभक्षण मात्र से अच्छी गति होती तो सभी मांसभक्षी पुण्यात्मा क्यों नहीं बन जाते ? आदि । तन्त्रशास्त्र के पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम और स्तोत्र-इन पाँच अंगों में भी क्रमशः यन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, योग और स्वरोदय रूप पंचामृत की अपेक्षा रहती है इसकी पूर्ति के लिए हमारे आचार्यों ने इन पर भी पूरा विचार किया है। यथा (१) यन्त्र-आज का युग भी यान्त्रिक युग कहा जाता है। मानव लोहे से लड़-भिड़कर भौतिक विज्ञान की वृद्धि में सतत जागरूक बना हुआ है । कुछ अंशों में वह अपनी कृतियों को देखकर मन में सन्तोष भी करता है पर अन्ततोगत्वा ये साधन विनाश की ओर ही ले जा रहे हैं इस बात को वह अस्वीकृत नहीं करता। हमारे यहाँ भी एक यान्त्रिक युग रहा है जिस काल में प्रत्येक उपासक प्राणिमात्र के दुःखविनाश के लिए देवी उपासना से सिद्ध मन्त्रों के द्वारा प्रयोग करता रहा । सही स्वरूप में उसने अपने पक्ष में इस स्थिति पर नियन्त्रण तो किया ही, साथ ही साथ आत्मोन्नति के चरम लक्ष्य से भी वह पीछे नहीं रहा । यन्त्रमयी देवता की दिव्य उपासना के द्वारा इहलौकिक और पारलौकिक सभी समस्यायें उचित ढंग से हल की और विश्व के समक्ष एक नया विज्ञान उपस्थित किया। . (२) मन्त्र-"नास्ति मन्त्रमनक्षरम्" के आधार पर यह कहना सरल हो गया है कि मन्त्रों की व्यापकता कितनी विशाल है। वाणी के द्वारा संसार की समस्त प्रक्रियायें सरलता से चल रही हैं और अहर्निश वाणी के माध्यम से ही हमारे सभी कार्य सम्पन्न हो रहे हैं । किन्तु यह वाणी का विकास अथवा विलास इतना विशाल है कि इसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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