Book Title: Syadwad aur Ahimsa Author(s): Saubhagyamal Jain Publisher: Z_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf View full book textPage 2
________________ ------------------ ३२६ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय पाठक भलीभांति जानते हैं कि महात्मा महावीर के समय में विभिन्न सिद्धान्तों (वादों) का प्रतिपादन करने वाले दार्शनिक तथा धर्माचार्य वर्तमान थे और वह अपने-अपने मतों का प्रचार करते थे. इस कारण यह स्वाभाविक था कि परस्पर जय-पराजय की भावना से वाद-विवाद होता, परस्पर कटुता निर्मित होती और परिणाम स्वरूप धर्म की आत्मा का हनन होता. जैन शास्त्रों से यह स्पष्ट है कि महात्मा महावीर के समय में ३६३ मत प्रचलित थे. बौद्ध साहित्य से भी यह स्पष्ट है कि उस समय ६२ या ६३ मत प्रचलित थे. संख्या का महत्व नहीं है किन्तु उस समय जन साधारण में मतिभ्रम था और परस्पर धार्मिक असहिष्णूता विद्यमान थी. महात्मा महावीर ने इस स्थिति पर गम्भीर विचार किया और यह प्रतिपादित किया कि यह सब आंशिक सत्य प्रतिपादित करते हैं. यदि पूर्ण सत्य का दर्शन करना चाहते हो तो एकांत का आग्रह तज दो. इसी संदर्भ में ३६३ मतों का समन्वय किया. सूक्ष्म विचार करने पर यह भलीभांति स्पष्ट होगा कि महात्मा महावीर ने विश्व के प्रत्येक प्रश्न तथा वस्तु के सम्बन्ध में विचार करने की एक नई पद्धति को जन्म दिया जिसे "अनेकान्त-विचारधारा" कहा जाता है. संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि महात्मा महावीर ने प्रत्येक वस्तु तथा प्रश्न पर ७ नयों की अपेक्षा से विचार करके अपना मत स्थिर करने की जिस पद्धति का आविष्कार किया उसे 'सप्तभंगी' अथवा 'अनेकान्त-विचारपद्धति' कहा गया. उसे वाणी द्वारा स्पष्ट करने को "स्याद्वाद" नाम से अभिहित किया. सत्य यह है कि इस 'अनेकान्त-विचार पद्धति' में किसी पक्षविशेष के प्रति आग्रह नहीं होता, अनाग्रह होता है. किसी वस्तु अथवा प्रश्न के प्रति एक दृष्टिकोण अपनाने वाला उसी वस्तु तथा प्रश्न के प्रति अन्य दृष्टिकोण अपनाने वाले के प्रति उदार विचार रखता है. वह मानता है कि उसमें भी सच्चाई है. मेरे द्वारा अपनाया दृष्टिकोण जहां सत्य है वहाँ अन्य दृष्टिकोण में भी सत्यता हो सकती है. यह उदारता का लक्षण है. एकांत विचार-धारा का व्यक्ति जहाँ अपने द्वारा अपनाये दृष्टिकोण के प्रति 'ही' का आग्रह रखता है वहां अनेकांत विचारधारा वाला 'भी' का मत रखता है. वास्तव में महात्मा महावीर ने इस सिद्धान्त का आविष्कार करके विश्व के सम्मुख 'धार्मिक असहिष्णुता' या सर्वधर्मसमभाव का उदाहरण प्रस्तुत किया है. महात्मा महावीर के निर्वाण से १००० वर्ष पश्चात् का काल साहित्य की दृष्टि से "आगमयुग" कहा जाता है अर्थात् विक्रमपूर्व ४७० से लेकर विक्रम पश्चात् ५ वीं शताब्दी तक का काल "आगम युग" है. उसके पश्चात् ५ वीं शताब्दी से ८ वीं शताब्दी तक का काल साहित्यनिर्माण की दृष्टि से "अनेकान्तयुग" कहा जाता है. इस युग में महात्मा महावीर के पश्चात्-वर्ती आचार्यों ने अनेकान्त पर प्रचुर साहित्य का निर्माण किया. महात्मा महावीर द्वारा प्रतिपादित "स्याद्वाद" सिद्धान्त का ही यह प्रताप था कि जैनाचार्यों ने जो तार्किक दृष्टिकोण अपनाया उस प्रकार का निष्पक्ष तथा उदार दृष्टिकोण अन्य के लिए अपनाना सम्भव नहीं था. श्रीमद् हेमचन्द्रचार्य ने शिवमन्दिर में निम्नप्रकार की स्तुति की थी भवबीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै । उक्त श्लोक में आचार्य ने उस महापुरुष को नमस्कार किया है जिसने रागद्वेष नष्ट करके पुर्नजन्म की सम्भावना समाप्त कर दी हो, चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हरि हो या जिन हो. इस उदारता का उदाहरण अन्यत्र मिलना सम्भव नहीं है. जैनाचायों के ताकिक दृधिकोण के सम्बन्ध में निम्न उद्धरण पर्याप्त होगा जो एक जैनाचार्य ने दृढ शब्दों में व्यक्त किया था पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।। उक्त आचार्य को न तो महावीर के वचनों के सम्बन्ध में पक्षपात है और न कपिलादि मुनियों के सम्बन्ध में द्वेष है. उनकी केवल एक कसौटी तर्क है. वह तर्क-युक्त वचनों को प्रमाण के रूप में मान्य करते हैं. इसी प्रकार एक अन्य आचार्य स्वयं महात्मा महावीर के अनुयायियों द्वारा अपनाई गई एकांत विचारधारा के कारण क्षुब्ध होकर स्पष्ट मन्तव्य देते हैं कि : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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