Book Title: Syadwad Vimarsh
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 2
________________ विवक्षित अभिप्रायसे सम्पन्न हो जाता है । पर यह बात नहीं कि वे अविवक्षित अभिप्राय उसमें विद्यमान न हों । स्याद्वाद इसी ऐकान्तिकताका निषेध करता है और अनेकान्तका विधान करता है । और तो क्या, वह अनेकान्त में भी अनेकान्तकी योजना करता है और यह अचरज करनेकी बात नहीं है । जिसे हमने अनेकान्त कहा है वह समष्टिको ध्यान में रखकर ही तो कहा है, पर व्यष्टि ( एक-एक धर्म- अभिप्राय) की अपेक्षासे तो वह अनेकान्त नहीं है, एक-एक अभिप्राय है । इस तरह अनेकान्तको भी स्याद्वादने समष्टि और व्यष्टिको अपेक्षाओंसे अनेकान्त बतलाया है ।" और यह अतात्त्विक या व्यर्थ जैसी चीज नहीं है । वस्तु हो जब वैसी स्वभावतः हो तो उसकी वैसी ही व्याख्या होनी चाहिए । हमें जो ऐकान्तिक दृष्टि से देखने की लत पड़ी हुई है उसीसे हम उक्त प्रकारके प्रतिपादनको अतात्त्विक या व्यर्थ कहने लगते हैं । अतः वस्तुके यथार्थ स्वरूपको देखना है तो हमें इस एकान्त दृष्टिके सदोष चश्मेको दूर कर स्याद्वाद - दृष्टि के निर्दोष सूक्ष्म-वीक्षण यन्त्रको लगाकर ही वस्तुके स्वरूपको देखना चाहिए और वैसी ही उसकी व्यवस्था करनी चाहिए । स्याद्वाद और अनेकान्तवादका सम्बन्ध कुछ विद्वानोंका कथन है कि स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक हैं— एक ही अर्थके प्रतिपादक दो शब्द हैं । किन्तु ऐसा नहीं है । इन दोनोंमें उसी तरहका भारी अन्तर है जिस तरहका प्रमाणवाद और प्रमेयवादमें, या ज्ञानवाद और ज्ञेयवादमें हैं । वस्तुतः स्याद्वाद व्यवस्थापक है और अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य । अथवा स्याद्वाद वाचक (प्रतिपादक ) है और अनेकान्तवाद प्रतिपाद्य । दोनों स्वतन्त्र हैं । पर व्यवस्थाप्य - व्यवस्थापक या वाच्य-वाचक सम्बन्धसे वे परस्पर में ऐसे सम्बद्ध हैं, जैसे शब्द और अर्थ, प्रमाण और प्रमेय, ज्ञान और ज्ञेय । इस तरह इन दोनोंमें बड़ा अन्तर है और दोनों ही भिन्नार्थक हैं । यहाँ ध्यान देने योग्य कि स्याद्वाद जब भी वस्तुकी व्यवस्था करेगा, तब 'सप्तभङ्गी' के द्वारा करेगा । अतः स्याद्वाद वक्ताका वचनस्थानीय है, अनेकान्तवाद वस्तुस्थानीय है और सप्तभंगीवाद प्रयोगसाधनस्थानीय है । चूँकि अनेकान्तस्वरूप वस्तु स्वयं अपने आपमें समष्टि और व्यष्टिकी अपेक्षा तथा प्रमाण और नयकी विवक्षासे अनेकान्त तथा एकान्त दोनों रूप है । इसलिए उसकी साधन प्रक्रिया - सप्तभंगी भी दो प्रकारकी कही गई है । एक प्रमाणसप्तभङ्गी और दूसरी नयसप्तभङ्गी । प्रमाणसप्तभङ्गीके द्वारा स्याद्वाद अनेकान्कस्वरूप वस्तुकी अनेकान्तात्मकताका और नयसप्तभङ्गी द्वारा उसी अनेकान्तस्वरूप वस्तुकी अनेकान्तात्मकताका प्रतिपादन करता है । यहीं इन तीनों - स्याद्वाद, सप्तभङ्गीवाद और अनेकान्तवाद में गौलिक भेद है । यहाँ सप्तभङ्गीवादसे उन सात भङ्गों (उत्तर वाक्यों) के समुच्चयसे अभिप्राय है, जिनके माध्यम से वक्ता अपने अभिप्रायको प्रकट करता है और प्रश्नकर्ता के प्रश्नोंका समाधान करता है । अनेकान्तवाद और सप्तभङ्गीवाद यद्यपि ऊपर के विवेचनसे अनेकान्तवाद और सप्तभङ्गीवादका स्वरूप ज्ञात हो जाता है तथापि उनके सम्बन्धमें थोड़ा प्रकाश और डालना आवश्यक है । 'अनेकान्तवाद' पदमें तीन शब्द हैं—अनेक, अन्त और वाद । अनेकका अर्थ नाना है और अन्तका अर्थ यहाँ उसके नानार्थक होते हुए भी धर्म विवक्षित है और वादका अर्थ मान्यता अथवा कथन है। पूरे पदका अर्थ हुआ नाना-धर्मात्मक वस्तुकी मान्यता अथवा कथन । इस तरह नानाधर्मात्मक वस्तुका नाम अनेकान्त और उसके स्वीकारका नाम अनेकान्तवाद है । १. अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनय साधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ Jain Education International - १८३ - -- समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तो० श्लो० १०६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3