Book Title: Syadwad Siddhant Manan aur Mimansa Author(s): Rameshmuni Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 1
________________ स्याद्वाद सिद्धान्त-मनन और मीमांसा श्री रमेश मुनि शास्त्री प्रत्येक दर्शन का एक मौलिक और विशिष्ट सिद्धान्त होता है, जिसके आधार पर उसके विचारों का भव्य भवन आधारित है। जैन दर्शन का अपना गम्भीर चिन्तन है, अपना मौलिक दृष्टिकोण है, उसका ज्योतिर्मय स्वरूप जैन साहित्य के प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित है। जैन दर्शन का प्राणतत्व अनेकान्तवाद है, इसकी सुदृढ़ नींव पर ही विचार और आचार का सुरम्य प्रासाद खड़ा होता है। इसलिए यहां यह जानना अतीव आवश्यक है कि अनेकान्तात्मक दृष्टिकोण का मूलभूत आधार क्या है ? जैन वाङ्मय का गहराई से पर्यवेक्षण करने पर सुस्पष्ट हो जाता है कि अनेकान्त-दृष्टि सत्य पर आधारित है। प्रत्येक मानव सत्य-ज्योति का संदर्शन करना चाहता है, उसका साक्षात्कार करना चाहता है। जो व्यक्ति सत्य को एक ही दृष्टि से देखता है तो वह दृष्टि परिपूर्ण और यथार्थ दृष्टि नहीं है। अनेकान्तवादी पदार्थ के स्वरूप को एक ही दृष्टि से नहीं अपितु विभिन्न दृष्टि-बिन्दुओं से देखता है, यही कारण है कि उस अनेकान्त-दृष्टि में पूर्णता और यथार्थता रही हुई है। . इसी सन्दर्भ में यह तथ्य ज्ञातव्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को वस्तु का यथार्थ स्वरूप पूर्णरूपेण ज्ञात हो सके यह असम्भव है। पूर्ण पुरुष ही अपने दिव्य ज्ञान से वस्तुमात्र के परिपूर्ण और यथार्थ स्वरूप को देखते हैं। परन्तु वे उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त नहीं कर सकते । जब पूर्ण पुरुष भी शब्दों के द्वारा पदार्थ के पूर्ण स्वरूप को प्रकट नहीं कर सकते, प्रकाशित नहीं कर सकते; तब अपूर्व व्यक्ति वस्तु के पूर्ण रूप को प्रकट करने की क्षमता रखता हो, यह सम्भव नहीं है। प्रत्येक पदार्थ अखण्ड है, वह अपने आप में एक है, अनन्तधर्मात्मक है, द्रव्यपर्यायात्मक है। उसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तीनों ही विद्यमान हैं। उत्पाद और विनाश परिवर्तन के प्रतीक हैं। ध्रौव्य नित्यता का सूचक है। गुण नित्यता का बोधक है और पर्याय अनित्यता का द्योतक है। इस पर से यह प्रकट है कि प्रत्येक पदार्थ के दो रूप होते हैं-नित्यता और अनित्यता, इनमें प्रथम पक्ष गुण का परिचायक है और उत्तर पक्ष उत्पाद और व्यय अर्थात् पर्याय का संसूचक है। प्रत्येक वस्तु के स्थायित्व में स्थिरता, समानता और एकरूपता रहती है। यह सच है कि परिवर्तन के समय में भी वस्तु के पूर्व रूप का विनाश होता है और उत्तर रूप की उत्पत्ति होती है। वस्तु के इस परिवर्तन में उत्पाद और व्यय होता है, फिर भी वस्तु का मूल स्वभाव विनष्ट नहीं हो सकता। प्रस्तुत विवेचन अपने आप में गम्भीरता को समेटे हुए है। इसलिये विषय की स्पष्टता के लिए उदाहरण प्रस्तुत करना अति-आवश्यक है। एक स्वर्णकार है, वह स्वर्ण के हार को तोड़कर कंकण बनाता है । इसमें हार का विनाश होता है और कंकण का निर्माण होता है। परन्तु इस उत्पाद और विनाश में स्वर्ण का स्थायित्व बना रहता है। ठीक इसी तरह पदार्थ के उत्पाद-व्यय के समय में मूल स्वभाव की स्थिरता बनी रहती है । उसका न तो उत्पाद होता है और न विनाश ही। वस्तु की यह जो स्थिरता है उसी को नित्य ध्रुव और शाश्वत कहते हैं। द्रव्याथिक नय की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्यायाथिक नय की दृष्टि से वह अनित्य है, अशाश्वत है, क्षणिक और अस्थिर है । उक्त कथत का स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य है और पयार्य की अपेक्षा से अनित्य है। द्रव्य और सत् दो नहीं हैं, एक हैं। द्रव्य का जो लक्षण है, वही लक्षण सत् का है। इस संदर्भ में ज्ञातव्य तथ्य यह है कि जैन दर्शन द्रव्य अथवा सत् को एकान्त रूप से नित्य स्वीकार नहीं करता है और न उसको एकान्त अनित्य ही मानता है, वह उसको नित्यानित्य मानता है। जैन दर्शन की यह विचारधारा सर्वथा मौलिक है कि वह पदार्थ में उत्पाद और व्यय मानता है, परन्तु यह मूलभूत पदार्थ का उत्पादव्यय नहीं है। प्रत्येक वस्तु की जो-जो पर्याय है, उन्हीं का उत्पाद है, व्यय है। उत्पाद और व्यय की व्याख्या को समझना अति-आवश्यक है। स्वजाति का त्याग किए बिना पर्यायान्तर का अधिग्रहण करना उत्पाद कहलाता है। स्वजाति का त्याग किये बिना पर्याय के पूर्व भाव का जैन दर्शन मीमांसा २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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