Book Title: Syadvad ki Drushti
Author(s): Swarnkiran
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf

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Page 2
________________ भी है । पर ऐसा वाक्य व्याघात नियम के अनुसार असिद्ध है । कर्मफल के साथ भी हम यह तर्क लागू कर सकते हैं । 'षड्दर्शन समुच्चय' की टीका ( रचयिता हरिभद्र सूरि तथा टीकाकार मणिभद्र सूरि) में एकांत सत्ता अथवा नित्यता का खंडन करते हुए कहा गया है "कोई वस्तु एकांत नित्य नहीं हो सकती। क्योंकि वस्तु का लक्षण है : 'अर्थक्रियाकारित्व' और 'क्रियाकारित्व' का अर्थ ही है गतिशीलता और क्रमिकता पर जो नित्य है वह शाश्वत अक्रम और एक रूप है । अतः यदि वस्तु नित्य है तो उसमें क्रमिकता नहीं, और क्रमिकता नहीं तो अर्धकारित्व नहीं, और अर्थकारित्व नहीं तो वह वस्तु ही नहीं तात्पर्य यह कि जो नित्य है वह वस्तु नहीं है, और जो वस्तु है वह नित्य नहीं है । (तथापि वस्तुतस्तावदर्थक्रिया- कारित्वं लक्षणम् । तच्च नित्यैकान्ते न घटते । - अप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरके रूपों हि नित्ये :- 'षड्दर्शन सम्मुच्चय । ) इस प्रकार सामान्य और विशेष में भी व्याघात है । भला कोई भी गौरव विरहित उसे व्यक्ति अथवा उसे व्यक्ति विच्छिन्न गौरव का उपपादन कर सकता है ? कदापि नहीं । हर एक विशिष्ट गाय अपनी गौरव जाति की प्रतिनिधि है, और हर गौरव जाति की कल्पना विशिष्ट गौ से अनिवार्य रूप से संतुष्ट है। अतः एकमात्र सामान्य या एकमात्र विशेष की भावना 'अंधगजियता' है । ( नहिं क्वचित्, कदाचित्, केनचित् किञ्चित्, सामान्यं विशेष- विनाकृतमनुभूयते विशेषो वा तद्विनाकृतः । केवलं दुर्णयवत प्रभावित प्रबलमतिव्यामोहादेकमपलप्यात्तद् व्यवस्थापयन्ति कुमतयः । सोऽयं मन्धगजन्यायः !... निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत् खरविषाणवत् । सामान्यरहित्वेन विशेषास्तद्वद् हि ('षड्दर्शन समुच्यय' एवं 'टीका' ।) मतलब यह कि जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु को 'है' और 'नहीं' दोनों रूपों से रखा जाता है इससे समस्या का सुझाव होता है। एकांत 'हो' या एकांत 'नहीं' न मानकर, प्रत्येक वस्तु को अनेकांत रूप से 'हां' या 'नहीं' मानना चाहिए। । स्याद्वाद की दृष्टि वास्तव में अनेकांतवादी दृष्टि है। 'यह घट है पर घट नहीं हैं' ('सर्वमास्ते स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च' FS1 उच्छ साहित्यालंकार, राष्ट्रीय गीतकार, साहित्य मनीषी, विद्यासागर (डी.लिट्.) साहित्य श्री, विद्यालंकार, लघुकथाचार्य आदि उपाधियों से सम्मानित । लगभग २५ पुस्तकों का प्रकाशन | कई ग्रंथों का सम्पादन तथा अनुवाद | कई पत्र पत्रिकाओ में सम्पादक या उपसम्पादक के रूप में कार्यरत । आकाशवाणी से भी रचनाओं का डॉ. स्वर्णकिरण प्रकाशन | निबंध लेखन, कविता एम.ए., पी.एच.डी. लेखन, अभिभाषण आदि में पुरस्कृत जैन समाज आरा द्वारा पुरस्कार प्रदान | अनेक भाषा विद्, परम्परा में प्रयोग, प्रयोग में परम्परा के हामी, मानवमूल्य के पदाक्षर एक उल्लेख हस्ताक्षर । श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रंथ विश्लेषण Jain Education International 'षड्दर्शन समुच्यय') अर्थात् दृष्टि भेद से घट भी है और नहीं भी है । एक दूसरा उदाहरण यहाँ अंधगजीयता अंधों का हाथीवाली कहावत से दिया जा सकता है । एक ही हाथी एक अंधे के लिए सूँढ जैसे गाजरनुमा या दूसरे के लिए दुम जैसा छडीनुमा और तीसरे के लिए कान जैसा पापड़नुमा सच पूछा जाए तो हाथी गाजरनुमा, छडीनुमा और पापडनुमा है भी और नहीं भी है। विश्लेषणात्मक दृष्टि से तो है, पर संश्लेषणात्मक दृष्टि से नहीं है। वास्तव में, ऐसा करके जैन दार्शनिक, शंकराचार्य के मतावलम्बी 'वेदांतियों के 'सत्य' और बौद्धों के शून्यः दोनों को 'अंधो का हाथी' मानते हैं । आवश्यकता है व्यापक और उदार दृष्टि की अनेकांतवादकी जिसमें एक नहीं, अनेक दृष्टिकोणों का समावेश हो स्वयं आचार्य शंकर सत्ता के तीन रूपों की कल्पना करते हैं पारमार्थिक व्यावहारिक तथा प्रातिमासिक । इनका समय जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर से लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद का है । क्या हम महावीर के ऋण को आचार्य शंकर के द्वारा सत्ता के तीन रूपों की कल्पना में स्वीकार नहीं कर सकते ? (दृष्टव्यः विहारोद्भूत जैन दर्शन का समन्वयवाद, प्रो. धर्मेन्द्र ब्रह्मचारी शास्त्री, पृ. ७६-७७) स्याद्वाद का अनिवार्य परिणाम अज्ञानवाद (Scepticism) में माना जाता है। अज्ञान, न कि ज्ञान, मोक्ष का आवागमन के चक्र से मुक्ति का साधन समझा गया और इस अज्ञानवाद के सप्तभंगी न्याय और नव तत्वों (जीवाजीवी तथा पुण्यपापमास्त्रवसंवरौ । बन्धश्च निर्जरा मोक्षौ नवतत्वानि तन्मते अर्थात् जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्त्रय, बंध, संचर, निर्जरा एवं मोक्ष षड्दर्शन समुच्चय) के सहारे ६७ अपवाद माने गये। इस संख्या की व्याख्या इस प्रकार की जाती है - सप्तभंगी न्याय की दृष्टि से नव तत्त्वों में से प्रत्येक के हिसाब से सात भेद । उदाहरण के लिए, जीव के हिसाब से जीव सत्व असत्व सद्सत्व अवाच्यत्व सद्वाच्यत्व असद्वाच्यत्व सदसद्वाच्यत्व १ इस क्रम से प्रकारतः नव तत्वों के हिसाब से ९ ७ ६३ उपभेद हुए । पर सत्व, असत्व, सद्सत्व और अवाच्यत्व - इन चार दृष्टियों से नव तत्वों की उत्पत्ति का विचार करते हुए चार और उपभेद हुए । इस प्रकार अज्ञानवाद के ६३ + ४ उपभेद हुए । अज्ञानवाद के ये भेद वस्तुतः जैन लोगों के समन्वयवादी दृष्टिकोण का परिचायक है । = ६७ प्रद 13115 मोह स्याद्वाद समन्वयवादी सिद्धान्त है ऐसा स्वीकार करने में किसी तरह की हिचक का अनुभव नहीं होता। कर्मवाद को यहाँ महत्व दिया जाता है पर कर्मवाद से बढ़कर चरित्र निर्माण को समझा जाता है। जैन लोग यह मानते हैं कि जीव निसर्गतः अनंत-दर्शन अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य का भागी है। कर्म के परमाणु, जीव के (१०८) For Private & Personal Use Only कि काल चक्र चलता सदा, अमर रहा नहीं कोय । जयन्तसेन करो वही, सुख शान्ति नित्य होय ॥ www.jainelibrary.org

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