Book Title: Swetambara Jain Sahitya ki Kuch Anupalabdh Rachnaye
Author(s): M A Dhaky
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 3
________________ ६४ मधुसूदन ढांकी भी बताया गया है ।' प्रमाणशास्त्र पर उनके द्वारा किसी ग्रन्थ लेखन की भी यहाँ सूचना है । अजितयशा की यह रचना आज हमारे सामने नहीं है । प्रभावकचरितकार ने अजितयशा से सम्बन्धित उपर्युक्त सूचना कहाँ से प्राप्त की, यह विचारणीय है । सं० १२९१ ( ईस्वी १२३५ ) को एक अप्रकाशित ताड़पत्रीय हस्तप्रति में अन्य श्वेताम्बर महापुरुषों के चरित्र महापुरुषों के चरित्र के साथ मल्लवादि सूरि का चरित भी सम्मिलित है । 3 क्या यह स्रोतों में से एक होगा ? प्रभावकचरित से लगभग १३५ वर्ष पूर्व लिखी गई बृहद्गच्छीय आम्रदत्त सूरि की आख्यानकमणिकोश- वृत्ति में भी अजितयशा के सम्बन्ध में ठीक यही बात कही गई है। इस कृति में अजितयशा द्वारा किसी ग्रन्थ की रचना से कुछ वर्ष पूर्व की एक कृति-भद्रेश्वर सूरि की कहावलि - में अन्य बातों के साथ वादि अजितयशा द्वारा ग्रन्थ-लेखन का उल्लेख है । ऐसा लगता है कि कहावलि का "मल्लवादि चरित" ही प्रभाचन्द्राचार्य के " मल्लवादि-चरित्र" में पल्लवित हुआ है । कहावलिकार ने मल्ल और तीसरे बन्धु यक्ष ( जिसने भी मुनि बन कर सूरिपद प्राप्त किया ) के साथ ही अजितयशा को भी " परवादि-वारण - मृगेन्द्र" कहा है, जो उनके न्याय-विषयक और दार्शनिक ज्ञान तथा खड्ग सदृश्य तीक्ष्ण बुद्धि का परिचायक है। शोध द्वारा अजितयशा के अन्य अवतरण उनके नाम से अथवा बिना नाम के, मिल जाना असम्भव नहीं । हारिल वाचक और उनका ग्रन्थ थारापद्र गच्छ के वादिवेताल शान्ति सूरि ने, अणहिल्लपत्तन में लिखी गई, स्वकृत उत्तराध्ययन सूत्र - वृत्ति ( प्राकृतः ईस्वी १०४० पूर्व ) में हारिल वाचक के वैराग्यप्रबोधक, दो पद्य उनके नाम सहित उद्धृत किये हैं । यथा: १. सं० जिनविजय मुनि, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद कलकत्ता १९४०, पृ० ७७ | 2. Ed. C. D. Dalal, A Descriptive catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandars of Pattan, Gaekwad's oriental Series No. LXXVI, Baroda 1937, pp. 194-195. ३. सं० मुनि पुण्यविजय, प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी १९६२, पृ० १७२-१७३ । ४. " नवरं विरइओ अजियजस्सो वायगो निओ पमाणगंथो वि, अजियजस्सो वाइ नाम पसिद्धो ।” Cf. Lalchandra B. Gandhi, "Introdution", Dvādaśāranaya Cakra of Sri Mallavadisuri, Pt. 1 (Ed. Late muni Caturvijayji), Gaekwad's oriental Series, No, CXVI, Baroda 1252, p. 10; एवं सं० मुनि जम्बुविजय, "प्राक्कथनम् ” द्वादशारं नयचक्रम्, प्रथमो विभाग ( १-४ अरा ), जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर १९६७, पृ० १२), प्रभावकचरित में संस्कृत रूप में यही बात इस तरह मिलती है ।" 'सन्ति ज्येष्ठोऽजितयशाभिधः १० ॥" तथाऽजितशोनामः प्रमाणग्रन्थमाह । ३४ ।" ( वही, पृ० ७७-७८ ) । ५. दोनों ग्रन्थों के पाठों की तुलना से यह स्पष्ट है । ६. भोगीलाल ज० सांडेसरा, जैन आगम साहित्यमां गुजरात [ गुजराती ], संशोधनं ग्रन्थमाला-ग्रन्थांक ८, गुजरात विधानसभा, अहमदाबाद, पृ० २१७; तथा मोहनलाल मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ३, वाराणसी १९६७, पृ० ३९२ | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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