Book Title: Swasthya aur Adhyatma
Author(s): Chanchalmal Choradiya
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

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Page 2
________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक राज्य जा सकते हैं । अतः हमें स्वस्थ रहने के लिए आत्मा में विकार बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। रोग में मन की भूमिका शक्ति एवं रोग की दूसरी परत मन से संबंधित होती है। मन का जितना विकसित स्वरूप मानव-जीवन में प्राप्त होता है, उतना अन्य किसी प्राणी में नहीं मिलता। मन से ही मनन, चिंतन, कृति, विकृति, संकल्प, इच्छाओं, एषणा, भावनाओं का नियंत्रण होता है। मन बड़ा चंचल है। उसकी स्वछन्द एवं अनियंत्रित गतिविधियाँ अधिकांश रोगों की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मन को संयमित, नियंत्रित तथा अनुशासित रखने से हम अनेक रोगों से सहज ही बच जाते हैं। आज हम जितना ख्याल शारीरिक स्वच्छता - शुद्धता का रखते हैं, बाह्य पर्यावरण एवं प्रदूषण की चिंता करते हैं, क्या इतनी चिंता मन में उठने वाले क्रोध, हिंसा, क्रूरता, तिरस्कार, वासना आदि विचारों के प्रदूषण की करते हैं? इन आवेगों से ही रोग बढ़ते हैं। मन का नियंत्रण हमारी स्वयं की सजगता पर निर्भर करता है। इसी कारण एक जैसे रोग की स्थिति में एक व्यक्ति बहुत परेशान एवं बेचैन रहता है। हाय-हाय करता है, जबकि दूसरा तनिक भी विचलित नहीं होता । स्वस्थ चिंतन, मनन, स्वाध्याय, ध्यान एवं कार्योत्सर्ग द्वारा मन को अशुभ से शुभ, अनुपयोगी से उपयोगी प्रवृत्तियों में लगाया जा सकता है। जो स्वस्थ जीवन के लिए अति आवश्यक है। शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान अपूर्ण- आत्मा और मन के पश्चात् रोग एवं शक्ति की तीसरी परत होती है शरीर की आंतरिक क्रियाओं पर और अंत में उनके लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं आते। जितने ध्यान में आते हैं; उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों की पकड़ में नहीं आते। जितने उनकी समझ से लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं, उन सभी का वे उपचार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट होते हैं, उनके आधुनिक सन्दर्भ में अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा अधिकांश. प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर रोगों से राहत पहुँचाने मात्र का होता है। विभिन्न चिकित्सा - पद्धतियाँ और उनमें कार्यरत चिकित्सक आज असाध्य एवं संक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े-बड़े दावे और विज्ञापन करते हैं, वे कितने भ्रामक तथा अस्थाई होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह छोड़ सम्यक् चिंतन आवश्यक है। जब निदान ही अधूरा हो, अपूर्ण हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या हैं ? अतः उपचार करते समय जो चिकित्सा-पद्धतियाँ शारीरिक व्याधियों को मिटाने के साथ-साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करती हैं, वे ही उपचार स्थाई एवं प्रभावशाली होते हैं, इसमें हमें तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए। सत्य सनातन होता है | करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते हैं। दो और दो चार ही होते हैं। अतः जिन्हें स्थायी रूप रोगमुक्त बनना हो, रोग के सभी कारणों से बचना एवं उपचार से दूर करना चाहिए। Jain Education International उपचार हेतु रोगी का दृष्टिकोण - आज चिकित्सा के बारे में असमंजस की स्थिति है। कोई रोग का कारण रासायनिक अंसतुलन एवं वायरस अथवा विषैले कीटाणुओं को मानते हैं तो कुछ वात, कफ, पित्त के असंतुलन को ही रोग का आधार बतलाते हैं । प्राकृतिक चिकित्सक वाणियाँ करते हैं। जितनी चिकित्सा पद्धतियाँ उतने ही सिद्धान्त । किसी पद्धति को अवैज्ञानिक गलत नहीं कहा जा सकता। परन्तु अधिकांश चिकित्सा पद्धतियों में चिकित्सक प्रायः एक पक्षीय चिंतन के पूर्वाग्रहों से ग्रसित होते हैं। उनके चिंतन में समग्रता एवं व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होता है। जनसाधारण से ऐसी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वे शरीर, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पद्धतियों के बारे में विस्तृत जानकारी रखें। अधिकांश रोगियों को न तो रोग के बारे में सही जानकारी होती है और न वे अप्रत्यक्ष रोगों को रोग ही मानते हैं। जब तक रोग के स्पष्ट लक्षण प्रकट न हों, रोग सहनशक्ति से बाहर नहीं आ जाता, विकारों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। रोगी का एकमात्र उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उत्पन्न लक्षणों को हटा कर अथवा दबाकर शीघ्रातिशीघ्र राहत पाना होता है। जैसे ही उसे आराम मिलता है, वह अपने आपको स्वस्थ समझने लग ট{ ३७ IMEGHN For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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