Book Title: Sukh Shanti ki Prapti ka Upay Sahaj Rajyoga
Author(s): Sunita Bramhakumari
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 5
________________ 174 पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ समाधि प्रारम्भ, (iii ) मग्न, ऋतंभरा बुद्धि या एकाग्र, (iv ) विन्दुकित या निरोध हैं / ये अवस्थायें पतंजल योग के समान ही होती हैं / इन अवस्थाओं के अभ्यास से अन्तः प्रकाश और अन्तः शक्ति जागृत होती है। पतंजल योग और सहज राजयोग जब भी योग का नाम लेते हैं, तो सामान्यतः इससे प्राचीन पतंजल योग का ही अर्थ लिया जाता है। यह राजयोग है / ब्रह्मकुमारियों की योग पद्धति भी राजयोग है, पर इसे सहज या सरल राजयोग कहते हैं। यह पतंजल के अष्टांगी योग की तुलना में सरल है। पतंजल योग में उद्गम, केन्द्र विन्दु, प्रेरणास्रोत एवं प्राप्य ईश्वर या परमात्मा नहीं है, उसमें ईश्वर को गौण स्थान प्राप्त है : इसके विपर्यास में, सहज राजयोग तो परमात्म-केन्द्रित ही है। इसमें भक्तिभाव की प्रधानता है। सहज राजयोग पतंजल के अष्टांग योग से सरल है। इसमें आसन और प्राणायामादि शरीर क्रियाओं का ( जिन्हें दुर्बल या व्यस्त लोग नहीं कर सकते ) महत्त्व नगण्य है। इसमें यम, नियम, परमात्म स्मृति एवं आत्मस्थिति, धारणा, ध्यान एवं समाधि प्रमुख हैं। सहज राजयोग के अनुसार, आसन और प्राणायान आदि क्रियायें चित्तवृत्ति को शरीराभिमुखी बनाती हैं। अभ्यास और वैराग्य की दशा में जब ये वृत्तियां नियन्त्रित हो सकती है, तब इन आसनादि की उपयोगिता स्वयं अस्पष्ट हो जाती है। वैसे भी आसनादि योग के बहिरंग साधन है। सहज राजयोग की मग्नावस्था पतंजल योग की समाधि अवस्था से भिन्न प्रतीत होती है क्योंकि उसका उद्देश्य चित्तवृत्ति निरोध से प्राप्त स्वरूप शन्यता एवं मुक्ति है, पर यहाँ चित्तवृत्ति निरोध के माध्यम से परमात्मास्मृति एवं संयोग ही योग का मुख्य लक्ष्य है / पतंजल योग में स्मृति भी एक चित्तवृत्ति है, उसका भी निरोध आवश्यक है। वितर्क, विचार, आनन्द और अस्मिता समाधियों में आनन्द का तीसरा और गौण स्थान है, स्वरूपशून्यता की स्थिति में उसके प्रति भी वैराग्यवृत्ति होती है। मरज राजयोग की मान्यता इसके भिन्न है। उसका लक्ष्य ही परमात्म स्मृति एवं आनन्दानुभति है / पतंजल की समाधि मानसिक अवधान की पराकाष्ठा है जब कि सहज राजयोग परमात्म स्वरूप के प्रति तादात्म्य है। पतंजल को चारों प्रकार की समाधियों के लक्षण राजयोग के उद्देश्य से मेल नहीं खाते। ये मानसिक अन्तम खता को अधिक महत्व देती हैं जबकि सहज राजयोग ईश्वर-प्रणिधान मात्र पर महत्व देता है। सहज राजयोगी इसके बिना योग का कोई अन्य प्रयोजन नहीं मानता। श्वास बह यात्री है जो बाहर की यात्रा भी करता है और भीतर की यात्रा भी करता है। यह वह दीप है जो बाहर भी प्रकाशित करता है और भीतर को भी प्रकाशित करता है। यदि हम भीतर की यात्रा करना चाहें, तो हमारे पास एकमात्र उपाय है कि हम मन को श्वास के रथ पर चढ़ा दें और उसके साथ भीतर चले जावें। हमारी अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो जावेगी, हम आध्यात्मिक बन जावेंगे। हमारा मन अचंचल हो जावेगा। ___ श्वास का सम्बन्ध है प्राण से, प्राण का सम्बन्ध है पर्याप्ति से अर्थात् सूक्ष्म प्राण से और माध्यम से आकाश मंडल से प्राप्त होता है। श्वास हमारी अध्यात्म साधना की नींव का पत्थर है। श्वास प्रेक्षा हमारी अध्यात्म शक्ति जागरण का पहला चरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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