Book Title: Studies iun South Indian Jainism Author(s): B K Khadabadi Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 5
________________ lost Drstivada, the 12th Aiga of the Jaina Canon.1 But Ludwig Alsdorf, a few years ago, has opined that this .. is not so. This sets aside not only our above noted impression, but also the important DharasenacaryaPuspadanta-Bhutabali tradition underlying the composition of the Sarkhandagama Volumes, a singular manuscript (in Kannada script) of which has been preserved at Muda bidri. Now unfortunately we do not have amongst us Hiralal Jain or A.N. Upadhye to reconsider their view in the light of Alsdorf's opinion. Hence, I with due respect to Alsdorf (whom I knew by meeting him at Ujjain) and to his valuable contribution to the Jaina studies, appeal to scholars like Kailasa Chandra Shastri to scrutinise this eminent German scholar's opinion in the light of the internal as well as external evidence of the Sarkhandagama Volumes, form their views. and publish them. दक्षिण भारत में जैन धर्म जैन धर्म के प्रसार की दृष्टि से दक्षिण भारत को दो भागों में बाँटा जा सकता है-तमिल तथा कर्नाटक / तमिल प्रान्त में चोल और पाण्ड्य नरेशों ने जैन धर्म को अच्छा प्राश्रय दिया। खारवेल के शिलालेख से पता चलता है कि सम्राट खारवेल के राज्याभिषेक के अवसर पर पाण्डय नरेश ने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे / पाण्डयनरेश ने जैन धर्म को न केवल प्राश्रय ही दिया किन्तु उसके प्राचार और विचारों को भी अपनाया। इससे उनकी राजधानी मदरा दक्षिण भारत में जनों का प्रमुख स्थान वन गई थी। तमिन ग्रन्थ 'नलिदियर' के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उत्तर भारत में दुष्काल पड़ने पर पाठ हजार जैन साधु पाण्ड्य देश में पाए थे। जब वे वहाँ से वापस जाने लगे तो पाण्डयनरेश ने उन्हें वहीं रखना चाहा / तब उन्होंने एक दिन रात्रि के समय पाण्ड्य नरेश की राजधानी को छोड़ दिया किन्तु चलते समय प्रत्येक साधु ने एक-एक ताडपत्र पर एक-एक पद्य लिख कर रख दिया। इन्हीं के समूदाय से 'नलिदियर' ग्रन्थ बना / तमिल साहित्य में 'कुरल' नाम का नीति ग्रन्थ सबसे बढ़कर समझा जाता है। यह तमिलवेद कहलाता है। इसके रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते हैं जिनका एक नाम कुन्दकुन्द भी था। सर गल्टर इलियट के मतानुसार दक्षिण की कला और कारीगरी पर जैनों का बड़ा प्रभाव है. परन्तु उससे भी अधिक प्रभाव तो उनका तमिल साहित्य के ऊपर पड़ा है। किन्तु जैन धर्म का सबसे महत्व स्थान तो कर्नाटक प्रान्त के इतिहास में मिलता है। यह प्रान्त प्राचीन काल से ही दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का मुख्य स्थान रहा है। इस प्रान्त में मौर्य साम्राज्य के बाद पान्ध्र वंश का राज्य हुग्रा, मान्ध्र राजा भी जैन धर्म के उन्नायक थे। आन्ध्रवंश के पश्चात् उत्तरपश्चिम में कदम्बों ने और उत्तरपूर्व में पल्लवों ने राज्य किया। चालुक्य भी जैन धर्म के प्रमुख प्राश्रयदाता थे। चालुक्यों ने अनेक जैन मन्दिर बनवाए, उनका जीर्णोद्धार कराया, उन्हें दान दिया और कन्नडी के प्रसिद्ध जैन कवि पम्प आदि का सम्मान किया। इसके सिवाय इतिहास से यह भी पता चलता है कि कर्नाटक में महिलाओं ने भी जैन धर्म के प्रचार में भाग लिया है। इन महिलाओं में परमगल की पहली 'कदाच्छिका', सत्तरस नागार्जन की पत्नी 'जक्कियन्वे', मल्लया की पुत्री 'अत्तिमन्चे', राजेन्द्र कोगा 'पोचव्वरासि', कदम्ब नरेश कीतिदेव की पत्नी 'माललदेवी', सान्त रपरिवार से सम्बद्ध 'चट्टलदेवी' मादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 0 कैलाशचन्द्र शास्त्री सिद्धान्ताचार्य, जैनधर्म, वाराणसी, 1966, पृ० 48-50 से उद्धता 1. Vide Introduction to the Sarkhandagama, Vol. I. " 2. Vide What were the contents of Drstivada' ?, German Scholars on India, Vol. I. Varanasi, 1973. 3. At the 26th Session of the All India Oriental Conference, 1971. जैन तस्व चिन्सन : प्रानिक सन्दर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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