Book Title: Smruti Pramanya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf

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Page 3
________________ बौद्धदर्शन स्मृतिको प्रमाण नहीं मानता / उसकी युक्ति भी मीमांसक या वैशेषिक जैसी ही है अर्थात् स्मृति गृहीतग्राहिणी होनेसे ही प्रमाण नहीं (तत्वसं० 10 का० 126) / फिर भी इस मन्तव्यके बारेमें जैसे न्याय वैशेषिक आदि दर्शनों पर मीमांसा धर्मशास्त्र का प्रभाव कहा जा सकता है वैसे बौद्ध-दर्शन पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि वह वेदका ही प्रामाण्य नहीं मानता / विकल्पज्ञानमात्र'को प्रमाण न मानने के कारण बौद्ध दर्शनमै स्मृतिका प्रामाण्य प्रसक्त ही नहीं है / ___जैन तार्किक स्मृतिको प्रमाण न माननेवाले भिन्न-भिन्न उपर्युक्त दर्शनोंकी गृहीतग्राहित्व, अनर्थजत्व, लोकव्यवहाराभाव आदि सभी युक्तियोंका निरास करके केवल यही कहते हैं, कि जैसे संवादी होने के कारण प्रत्यक्ष आदि प्रमाण कहे जाते हैं वैसे ही स्मृतिको भी संवादी होने ही से प्रमाण कहना युक्त है। इस जैन मन्तव्य में कोई मतभेद नहीं। श्राचार्य हेमचन्द्रने भी स्मृतिप्रामाण्यकी पूर्व जैन परम्पराका ही अनुसरण किया है---प्र० मी० पृ० 23 / स्मृतिज्ञानका अविसंवादित्व सभीको मान्य है / वस्तुस्थितिमें भतभेद न होने पर भी मतभेद केवल प्रमा शब्दसे स्मृतिज्ञानका व्यवहार करने न करने में है। ई० 1636] [प्रमाण मीमांसा 1. 'गृहीतग्रहणान्नेष्ट सांवृत्त...."-(सांवृतम्-विकल्पज्ञानम्-मनोरथ०) प्रमाणवा० 2.5 / 2. 'तथाहि--अमुष्याऽप्रामाण्यं कुतोऽयमाविष्कुर्वीत, किं गृहीतार्थग्राहित्वात् , परिच्छित्तिविशेषाभावात् , असत्यतीतेथे प्रवर्तमानत्वात् , अर्थादनुत्पद्यमानत्वात् , विसंवादकत्वात् , समारोपाव्यवच्छेदकत्वात् , प्रयोजनाप्रसाधकस्वात् वा ।"--स्याद्वादर० 3. 4 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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