Book Title: Sirohi Jile me Jain Dharm Author(s): Sohanlal Patni Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ सिरोही जिले में जन-धर्म जमाने का प्रयत्न किया पर उन्हें सफलता नहीं मिली। निरन्तर आक्रमणों से ये दोनों ही स्थान उजड़ गये / गुजरात के परमाहत महाराज चौलुक्य कुमारपाल ने आबू, जीरावल एवं आसपास के क्षेत्र के मन्दिरों के जीर्णोद्धार के लिए महत्प्रयत्न किये / प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनदत्तसूरि, सोमचन्द्रसूरि, लक्ष्मीसागर सूरि, हरिविजयसूरि एवं मेघविजयोपाध्याय का सम्बन्ध इस मण्डल से बराबर रहा। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि माघ के पूर्वजों का सम्बन्ध वसन्तगढ़ के राणाओं से रहा / वस्तुपाल ने इस प्रदेश के चन्द्रावती एवं देलवाडा में अपने वसन्तविलास ग्रन्थ को पूरा किया जिस पर सोमेश्वर ने उन्हें श्रेष्ठ कवि की उपाधि दी / ' सोमेश्वर ने भी अपने चन्द्रावती निवास के समय कीर्तिकौमुदी की रचना की। तपागच्छ के हेमविजयगणि के विजय प्रशस्ति महाकाव्य' की दस हजार श्लोक प्रमाण टीका की समाप्ति गुण रत्न विजयजी ने सं० 1688 में सिरोही में की। . राणकपुर के त्रैलोक्य दीपक मन्दिर का निर्माता धरणशाह सिरोही जिले के नांदिया गाँव का रहने वाला था। सम्राट अकबर-प्रतिबोधक हीरविजयसूरि ने सिरोही के उत्तुंग शिखर चौमुखा मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी एवं यहीं उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गयी थी। वि० सं० 1533 में सिरोही के एक गाँव अठवाड़ा (शिवगंज तहसील) में स्थानकवासी परम्परा के प्रवर्तक लोकाशाह ने मूर्तिपूजा का विरोध किया एवं दयाधर्म की उद्घोषणा की। इनके विषय में एक पुराना दोहा प्रसिद्ध है लोकाशाहइ जलमिया सिरोही धरणा / संता शूरा वरणिया भौसागर तरणा // इन लोकाशाह ने एवं इनके शिष्य लखमसी, रूपजी तथा जीवनी ऋषि ने सर्वप्रथम पोसलिया (सिरोही) एवं सिरोही में लोकागच्छ उपाश्रयों की स्थापना की। इस प्रकार स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ सिरोही से हुआ। १७वीं सदी से तो सिरोही जैनधर्म का गढ़ रहा है। यहाँ के दीवान पद पर बहुत से जैन प्रतिष्ठित हए एवं सिरोही के महाराव सुरताण ने हीरविजयसूरि के उपदेश से अमारि प्रवर्तन का आदेश दिया था। सिरोही के महाराव शिवसिंह की बामनवाड़ मण्डन महावीर स्वामी पर अट्ट श्रद्धा थी एवं उन्होंने मन्दिर के लिए वीरवाड़ा ग्राम का दान दिया था। उन महाराव की हाथी से उतरी नमस्कार मुद्रा में पूजार्पण मुद्रा प्रतिमा बामनवाड़ी में आज भी मौजूद है। श्वेताम्बर परम्परा में सिरोही को अर्द्ध शत्रुजय की महिमा से मण्डित किया गया है एवं यहाँ के जैनों ने अहमदाबाद, सूरत एवं बड़ौदा में बसकर बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त की है। धार्मिक सहिष्णुता भी इस प्रदेश में बहुत रही है। देलवाड़ा के नेमिनाथ मन्दिर के सं० 1287 के लेख से यह ज्ञात होता है कि इस मन्दिर के संरक्षण का उत्तरदायित्व राजपूतों एवं ब्राह्मणों तक ने अपने ऊपर लिया था। परवर्तीकाल में भी जैनों को राज्याश्रय यहाँ मिला। वि० सं० 1964 की वैशाख सुदि प्रतिपदा को वाटेरा ग्राम में त्रिविक्रम विष्णु मन्दिर की प्रतिष्ठा जैनाचार्य विजयमहेन्द्रसूरिजी ने की थी। यहाँ के जैन गुजरात एवं दक्षिण भारत में व्यापार-व्यवसाय करते हैं एवं अपनी संस्कृति की रक्षा में लगे हुए हैं। 1. सोमेश्वर की आबू के लूणवसहि मन्दिर की प्रशस्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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