Book Title: Silakkhandhavagga Abhinava Tika Part 1
Author(s): Vipassana Research Institute Igatpuri
Publisher: Vipassana Research Institute Igatpuri

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Page 10
________________ प्रस्तुत ग्रंथ दीघनिकाय साधना की दृष्टि से महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसके सीलक्खन्धवग्ग में शील, समाधि तथा प्रज्ञा पर सरल ढंग से प्रचुर सामग्री उपलब्ध है । व्यावहारिक जीवन में आगत वस्तुओं एवं घटनाओं से जुड़ी हुई उपमाओं के सहारे इसमें साधना के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध की देशना सरल तथा हृदयस्पर्शी हुआ करती थी। उनकी यह शैली व्याख्यात्मिका थी पर कभी कभी धर्म को सुबोध बनाने के लिये 'चूळनिद्देस' एवं 'महानिद्देस' जैसी अट्ठकथाओं का उन्होंने सृजन किया । प्रथम धर्मसंगीति में बुद्धवचन के संगायन के साथ इनका भी संगायन हुआ। तदनंतर उनके अन्य वचनों पर भी अट्ठकथाएं तैयार हुईं। जब स्थविर महेन्द्र बुद्ध वचन को लेकर श्रीलंका गये, तो वे अपने साथ इन अट्ठकथाओं को भी ले गये । श्रीलंकावासियों ने इन अट्ठकथाओं को सिंहली भाषा में सुरक्षित रखा । कालांतर में बुद्धघोष ने उनका पालि में पुनः परिवर्तन किया। दीघनिकाय के अर्थों को प्रकाश में लाते हुए बुद्धघोष ने 'सुमङ्गलविलासिनी' नामक अट्ठकथा का प्रणयन किया । पुनः भदंत धम्मपाल ने उस पर 'लीनत्थप्पकासना' नामक टीका लिखी । अट्ठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में महाथेर जाणाभिवंसधम्मसेनापति द्वारा 'साधुविलासिनी' नामक अभिनवटीका की रचना की गयी । यह टीका प्रौढ, व्याख्यामूलक तथा धर्म के विभिन्न अंगों पर प्रकाशक रूप है। इसका मुद्रित संस्करण आपके सम्मुख है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यह प्रकाशन विपश्यी साधकों और विशोधकों के लिए अत्यधिक लाभदायक सिद्ध होगा। निदेशक, विपश्यना विशोधन विन्यास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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