Book Title: Siddhi Vinishchay Tika ka Vaidushya purna Sampadan
Author(s): Darbarilal Kothiya
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ११ वन्दना करते हुए लिखते हैं कि मैं अनन्तवीर्यरूपी मेघको वन्दन करता हूँ, जिन्होंने अपनी वचनामृत वर्षा द्वारा जगतको ध्वंस करनेवाली शून्यवादरूपी अग्निको बुझाया' । अतः ये अनन्तवीर्यं इन दोनों ( प्रभाचन्द्र और वादिराज ( १०२५ ) व्याख्याकारोंसे पूर्ववर्ती हैं। तथा विद्यानन्द ( ७७५-८४० के समकालीन हैं, क्योंकि दोनों में किसीने किसीका उल्लेख नहीं किया । अतः अनन्तवीर्यका समय विद्यानन्दका समय ( ८वीं९वीं शती) जान पड़ता है ।" सिद्धिविनिश्चय-टीका ऊपर हम कह आये हैं कि यह टीका अकलंकदेवके स्वोपज्ञवृत्ति सहित सिद्धिविनिश्चय की है । अकलंकदेवके जितने तर्कग्रन्थ हैं वे सभी दुरवगाह, दुरधिगम्य हैं। टीकाकार अनन्तवीर्य उनकी गहनता प्रकट करते हुए स्वयं कहते हैं देवस्थानन्तवीर्योऽपि पदं व्यक्तुं तु जानीतेऽकलङ्कस्य चित्रमेतत्परं न अर्थात् - मैं अतन्तवीर्य होकर भी अकलंकदेव के पदोंको पूर्णतः व्यक्त करना नहीं जानता । इस लोक में यह बड़ा आश्चर्य है । उस समय ऐसे गहन और संक्षिप्त प्रकरणोंका रचयिता बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिको माना जाता था । अनन्तवीर्यं उनकी अकलंकके साथ तुलना करते हुए लिखते हैं सर्वतः । भुवि ॥ ३ ॥ सर्वधर्मस्य नैरात्म्यं कथयन्नपि सर्वथा । धर्मकीर्तिः कथं गच्छेदाकलङ्कं पदं ननु ॥ ५ ॥ अर्थात् सर्वं धर्मकी निरात्मकताका कथन करनेवाला धर्मकीर्ति भी अकलङ्कके पदको समानताको कैसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् नहीं । इससे प्रकट है कि अकलंककी रचनाएँ बेजोड़ और अत्यन्त दुरूह हैं । इनकी दो तरह की रचनाएँ हैं - (१) टीकात्मक और (२) मौलिक । टीकात्मक दो हैं - (१) तत्त्वार्थवार्तिक ( स्वोपज्ञभाष्य सहित ) और ( २ ) अष्टशती ( देवागम - विवृति - देवागमभाष्य ) । तत्त्वार्थवार्तिक भाष्य आ० गृद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्रकी विस्तृत व्याख्या है और अष्टशती स्वामी समन्तभद्रके देवागम (आप्तमीमांसा ) की विवृति / भाष्य है । मौलिक ग्रन्थ निम्न हैं १. लघीयस्त्रय ( प्रमाण, नय और निक्षेप इन तीन प्रकरणों का समुच्चय ), २. न्यायविनिश्चय ( स्वोपज्ञवृत्तियुत) ३. सिद्धिविनिश्चय ( स्वोपज्ञवृत्तिसहित ) और ४. प्रमाण संग्रह ( स्वोपज्ञवृत्तियुक्त ) ये सब संक्षिप्त और सूत्ररूप हैं । १. पार्श्व ० च० । २. जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० २५० । Jain Education International अष्टशतीको वेष्टित करके विद्यानन्दने देवागम पर अपनी विद्वत्तापूर्ण अष्टसहस्री ( देवागमालंकार टीका ) लिखी है । लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञवृत्तिपर प्रभाचन्द्रने 'लघीयस्त्रयालंकार' अपरनाम 'न्यायकुमुदचन्द्र' नामकी विशाल व्याख्या रची है । 'न्यायविनिश्चय' पर मात्र उसकी कारिकाओं को लेकर वादि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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