Book Title: Siddhashila
Author(s): M A Dhaky
Publisher: ZZ_Anusandhan

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________________ सिद्धशिला मधुसूदन ढांकी भवचक्रमांथी मुक्ति मेळव्या पछी जीवात्मा कया स्थान प्रति गति करे छे ते संबंधनी अन्य प्राचीन भारतीय धर्मोनी विभावनाओथी निर्ग्रन्थदर्शननी विभावना जुदी पडे छे; वस्तुत: ते तद्दन निराळी छे. निर्ग्रन्थ विभावमां अनंत आकाश वच्चे, प्रतीकलक्षी उपमानथी 'पुरुषाकृति' मनाता, 'लोक' किं वा संपूर्ण "विश्व' सदैव संस्थिर अवस्थामा रहे छे. प्रस्तुत शाश्वत संपूर्ण लोकना 'त्रिलोक' रूपे त्रण प्रभाग कल्पवामां आव्या छ : अध:लोक (नरकादि), तिर्यक्लोक (अमुक हदे मनुष्य-तिर्यंचादिनु) निवासस्थान, अने ऊर्ध्वलोक (देवकल्पो आदि). असंख्याता जीवात्माओनी कर्मानुसार, आ 'त्रिलोक' अंतर्गत विविध (८४ लाख) योनिओमां जन्म-मरणनी संपरिलीलायुक्त गति निरंतर थती रहे छे. आ घटमाळमांथी मुक्त थनार जीव, अंतत: लोकना सर्वोच्च भागे, देवकल्पोनी टोचे रहेली 'सिद्धशिला' पर निरंजन-निराकार, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी रूपे, अपरिमेय, अव्याबाध सुखमां सदैव स्थायीरूपे वसे छे. त्यां पहोंची गया पछी संसारमा पुनरागमन टळी जाय छे. ब्राह्मणीय दर्शनोमां, वेदांतादि अनुसार, मुक्ति पामेल आत्मा तो सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, संपूर्ण विश्व समेत सर्व पदार्थोने पोतानामा समावनार 'ब्रह्म'मां विलीन थई जाय छे : अफाट महार्णवमां मळी जता जलबिंदुनी जेम, तो वळी पौराणिक मान्यताओमां जोईए तो, विमुक्त जीव शैवधर्ममां शिवना धाम मनाता ‘कैलास' पर्वत पर, अने भागवत-वैष्णवधर्ममां भक्तात्मा "विष्णुलोक/वैकुंठ' पहोंची त्यां निवास करे छे. तो अनात्मवादी बौद्धदृष्टिमा देह तेम ज चैतन्याभासनुं प्रकटीकरण 'पंचस्कन्ध (विज्ञान,वेदना,संज्ञा, संस्कार,रूप)ना संतुलित सम्मिलनने प्रतापे थाय छे. कर्मान्त पछी तेनुं संघटन पूर्णतया विशृंखल थई जतां बधा ज आनुषंगिक पण अन्यथा क्षणिक संस्कारोनुं शून्यमां पूर्णतया शमन ए ज निर्वाण छे.. निर्ग्रन्थोनी मोक्षस्थान संबंधी आगवी कल्पना केटली पुराणी छे, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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