Book Title: Siddhakshetra Kundalgiri
Author(s): Fulchandra Jain Shatri
Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf

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Page 2
________________ ३६८ पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [ खण्ड (२) नालन्दा के निकट बड़ागांव को कुण्डलपुर मानकर उसे वर्तमान में भगवान् महाबीर का जन्मस्थान माना जाता है । वहाँ एक जिन मन्दिर भी बना हुआ है । साधारण जनता वन्दना की दृष्टि से वहाँ पहुँचती रहती है। (३) एक कुण्डलपुर सतारा जिले में स्थित है। यह पूना से सतारा वाले रेलमार्ग पर किर्लोस्कर बाड़ी से ७ किमी० पर स्थित है। यहाँ स्थित पहाड़ पर दो जिन मन्दिर भी बने हुए है, इसलिए यह तीर्थक्षेत्र के रूप में माना जाता है। (४) मध्यप्रदेश के दमोह जिले के अन्तर्गत ३५ किमो० दूर ईशान दिशा में जो क्षेत्र अवस्थित है, उसके पास कुण्डलपुर नाम का गाँव होने से, क्षेत्र को भी कुण्डलपुर कहा जाता रहा है। पर वहाँ स्थित क्षेत्र का नाम वास्तव में कुण्डलगिरि ही है। इस प्रकार कुण्डलपुर नाम के ये चार स्थान प्रसिद्ध हैं। इनमें से दो ही ऐसे स्थान हैं जो विचार कोटि में लिये जा सकते हैं। एक महाराष्ट्र में सतारा जिले के अन्तर्गत कुण्डल स्थान और दूसरा म०प्र में दमोह जिले के अन्तर्गत कुण्डलपुर स्थान। इन दोनों स्थानों पर जो पर्वत है, उन पर जिन मन्दिर बने हुए हैं। इसलिए दोनों ही स्थान क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हैं । अब देखना यह है कि इन दोनों स्थानों में से सिद्धक्षेत्र कौन हो सकता है । १-त्रिलोक प्रज्ञप्ति के प्रमाण से तो यही मालूम पड़ता है कि जो कुण्डलाकार गिरि है, वही सिद्धक्षेत्र हो सकता है, दूसरा नहीं। इस बात को ध्यान में रखकर जब हम विचार करते हैं, तो इससे यही प्रतीत होता है दमोह जिले में कुण्डलपुर के अति निकट का पहाड़ ही कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र होना चाहिए। यह गिरि स्वयं तो कुण्डलाकार है ही, किन्तु इस गिरि से लगकर कुण्डलाकार गिरियों की एक शृंखला चालू हो जाती है । दमोह से कटनी के लिए जो सड़क जाती है, उस पर अवस्थित जो प्रथम कुण्डलाकार गिरि है, वही प्राचीन काल से सिद्धक्षेत्र माना जा रहा है। इसलिए उस गिरि पर स्थित पूरे सिद्धक्षेत्र के दर्शन हो जाते हैं। किन्तु उससे लगकर कार दूसरा गिरि मिलता है, उसकी रचना भी ऐसी बनी हुई है कि उसके मध्य में स्थित सड़क से चार-पांच जिन मन्दिरों के दर्शन हो जाते हैं। यही स्थिति तीसरे, चौथे और पांचवें कुण्डलाकार गिरियों की है। मात्र उन गिरियों पर स्थित जिन मन्दिरों का दर्शन सड़क से उत्तरोत्तर संख्या में कम होता जाता है। इसलिए इन गिरियों की ऐसी प्राकृतिक रचना को देखकर यह निश्चय होता है कि त्रिलोक प्रज्ञप्ति में जिस कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र का उल्लेख है, वह यही होना चाहिए। २-इण्डियन एन्टोक्वेरी में नन्दिसंघ की एक पट्टावलि अंकित है । यह जैन सिद्धान्त भास्कर १, ४, पृष्ठ ७९ १९१२ में मुद्रित की गयी है । यह पट्टावलि द्वितीय भद्रबाहु से चालू होती है। इसमें बतलाया गया है कि विक्रम सं० ११४० (१०८३ ई०) में महाचन्द्र या माधवचन्द्र नाम के जो पट्टधर आचार्य हुए हैं, उनका मुख्य स्थान कुण्डलपुर (दमोह जिला) था। इनका पट्टस्थ क्रमांक ५२ है । यह भी एक प्रमाण है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि दमोह जिले में कुण्डलपुर के पास का कुण्डलगिरि ग्यारहवीं सदी में भी इसी रूप में माना जाता रहा है । यहाँ उल्लिखित पट्टावलि गौतम गणधर से प्रारम्भ होती है फिर भी, इस पट्टावलि को जो द्वितीय भद्रबाहु से प्रारम्भ किया गया है इसका कारण यह प्रतीत होता है कि द्वितीय भद्रबाहु के काल में ही बलात्कारगण की स्थापना हो गयी थी। इसीलिए इस पट्टावलि को बलात्कारगण की पट्टावलि भी कहा जाता है । पहिले तो पट्टधर जितने भी आचार्य होते थे, वे सब मुनि ही होते थे। यह परम्परा १३ वीं सदी तक अक्षुण्ण रहती आई। किन्तु बसन्तकीर्ति मुनि के काल में पट्ट पर बैठने वाले मुनियों द्वारा वस्त्र ग्रहण करना प्रारम्भ हो जाने से (भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० ९३) वे भट्टारक शब्द द्वारा अभिहित किये जाने लगे। इस पट्टावलि को केवल भट्टारक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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