Book Title: Siddha Hemchandra Shabdanushasan Bruhad Vrutti Part 03 Author(s): Vajrasenvijay Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust View full book textPage 4
________________ प्रकाशक की कलम से... सकल श्रीसंघ की सेवा में 'सिद्धहेम बृहद्वृत्ति लघुन्यास सहित महाग्रंथ के द्वितीय भाग का प्रकाशन करने के बाद अल्प समय में ही इस तृतीय भाग को प्रकाशित करते हुए हमें अत्यंत ही आनंद हो रहा है । परम कृपालु महावीर देव जब बाल्यावस्था में थे, नव सौधर्मेन्द्र ने आकर भगवान् से व्याकरण सम्बन्धी जो प्रश्न किये थे, उन सभी का भगवान् ने संतोषप्रद समाधान किया था । वाल्पवय में भी प्रभु की अद्भुत ज्ञान प्रतिभा को देखकर सभी दंग (प्राश्चर्य चकित रह गये थे । उस काल में सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण प्रसिद्धि में आया यह बात हम हर वर्ष पर्युवरण में सुनते आये हैं। - कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धराज की प्रार्थना को लक्ष्य में रखकर 'सिद्धहेमचन्द्र - शब्दानुशासनम्' का निर्माण किया था और उन्होंने इस ग्रन्थ पर लघुवृत्ति - बृहद्वृत्ति और बृहन्न्यास का भी निर्माण किया था। दुर्भाग्यवश प्राज वह बृहन्म्यास पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं है। इस व्याकरण की बृहद्वृत्ति पर पू. आचार्य श्री कनकप्रभसूरिजी म. विरचित न्याससार समुद्धार (लघुन्यास संज्ञक ) उत्तम विवरण ज्ञानभंडारों में आज भी मौजूद है । परन्तु आज उसकी हालत प्रत्यन्त ही खस्ता है । पत्ते जीणं हो गए हैं तथा इसके साथ ही दुष्प्राप्य भी हैं। लेकिन जैन शासन का सौभाग्य है कि उसकी जीर्ण हालत को - देखकर पू. प्राचार्य श्री विजय कुन्दकुन्दसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री वयसेन विजयजी म. सा के हृदय में उसके पुनर्मुद्रण रूप जीर्णोद्धार करवाने की सद्भावना जगी । दूसरी ओर सिद्धांत दिवाकर प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोषसूरिजी म. की ओर से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को इस ग्रन्थरत्न के जीर्णोद्धार के लिए पुनीत प्रेरणा प्राप्त हुई । विशालग्रन्थरत्न का प्रकाशन करना, एक भगीरथ कार्य था और इस कार्य में प्रायः डेड लाख रुपये से कम खर्च नहीं था। पूज्य गुरुवर्यो की शुभ प्रेरणा से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों के दिलों में यह शुभ मनोरथ हुआ कि अपने ट्रस्ट की ज्ञाननिधि का सद्व्यय करके इस पुण्य कार्य का लाभ उठाया जाय । आज ऐसे महान् ग्रन्थरत्नों के पीछे अपना अमूल्य समय देने वालों की संख्या अत्यल्प होने से पूज्य मुनि भगवंतों की इस पवित्र भावना को क्यों न सहर्ष अपना लिया जाय ? और बस, हमने इस महाग्रन्यरत्न के जीर्णोद्धार में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय कर लिया । इस ग्रन्थरत्न के सुवाच्य पुनः संपादन के इस भगीरथ कार्य को परमपूज्य गच्छाधिपति, संघहितवत्सल, प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा की अनुमति और शुभाशीर्वाद से प्रतिपरिश्रमपूर्वक पूर्ण करने वाले परम पूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के शिष्य-प्रशिष्य परमपूज्य मुनिराज श्री वज्यसेन विजयजी महाराज साहब तथा परम पूज्य मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म. सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे । उनके इस भगीरथ कार्य की हम वारंवार धनुमोदना करते हैं, एवं सकल श्रीसंघ से धर्ज करते हैं कि ऐसे संघरत्न मुनि भगवंत, जो कि भूत-भक्ति से निःस्वार्थ श्रुत सेवा कर रहे हैं प्रदान कर श्रुत समृद्धिको युगों पर्यंत जीवनदान देकर आत्मकल्याण के पथ में आगे बढ़े । उन्हें पूर्ण सहयोग लि. श्री भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयस ट्रस्टPage Navigation
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