Book Title: Siddh Hemhandranushasanam Part 03
Author(s): Hemchandracharya, Udaysuri, Vajrasenvijay, Ratnasenvijay
Publisher: Bherulal Kanaiyalal Religious Trust
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कुमारपाल को प्रतिबोध कर, उन्होंने जिनशासन की अद्भुत प्रभावना की है। उनके विराट् व्यक्तित्व का परिचय वाणी से अगोचर है, फिर भी प्राचीन और अर्वाचीन अनेक विद्वानों ने उनके विराट व्यक्तित्व को प्रांशिक रूप से शब्द-देह देने का प्रयास किया है।
_ 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्' के प्रथम भाग में मैंने ग्रंथकार का संक्षिप्त जीवन-परिचय देने का अल्प प्रयास किया है, परन्तु वह परिचय तो बालक द्वारा अपने हाथ पसार कर उदधि / सागर का माप बतलाने तुल्य ही है।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य भगवंत के विराट् व्यक्तित्व का परिचय देने वाली तत्कालीन विद्वानों की अनेक काव्य-पंक्तियाँ इतिहास के स्वर्ण-पृष्ठों पर अंकित हैं, उनमें से कतिपय पक्तियां यहाँ उद्धृत की जा रही है
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विराट् आत्मा का विराट् व्यक्तित्व और अद्भुत कृतित्व
सम्यग्ज्ञाननिर्गुणरनवधेः श्रीहेमचन्द्रप्रभोः ।
ग्रंथे व्याकृतिकौशल, वसति तत् क्वास्मादृशां तादृशं ।। अर्थ- सम्यग्ज्ञान के निधि और गुणों से अवधि रहित श्री हेमचन्द्र प्रभु के ग्रन्थ में जो व्याकृति (व्याकरण-शब्दविज्ञान) का कौशल है, वैसा कौशल हमारे जैसे में कहाँ से हो?
-श्री महेन्द्र सूरि कृत अनेकार्थ-करय कौमुदी (२) विद्याम्भोनिधिमंथमंदरगिरिः श्रीहेमचन्द्रो गुरुः ।
-श्रो देवचन्द्रसूरि कृत चन्द्रलेखा नाटक अर्थ-विद्या रूपी समुद्र को मथने के लिए श्री हेमचन्द्र गुरु मंदरगिरि के समान हैं ।
क्लपं व्याकरणं नवं विरचितं. छन्दो नवं दयाश्रयाऽलंकारौ प्रथितौ नवी प्रकटिती श्री योगशास्त्रं नवं । तर्कः संजनितो नवो जिनवरादीनां चरित्रं नवं,
बद्धं येन न केन केन विधिना, मोहः कृतो दूरतः ।। अर्थ-नवीन व्याकरण, नवीन छन्दोनुशासन, नवीन द्वयाश्रय महाकाव्य, अलंकार शास्त्र, योग-शास्त्र, प्रमाण-शास्त्र तथा जिनेश्वर देवों के चरित्रों की रचना करके (श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य जी ने) किस-कि.म प्रकार से अपना मोह दूर नहीं किया है ? अर्थात् अनेक प्रकार से दूर किया है।
-श्री सोमप्रभसूरिकृत शतार्थकाव्य-टी का जोक ९३ (४)
निःसीमप्रतिभैकजीवितघरौ, निःशेषभूमिस्पृशां, पुण्यौधेन सरस्वतीसरगरू. स्वांगैकरूपो दधत । यः स्याद्वादमसाधयन् निजवपुष्टान्ततः सोऽस्तु मे,
सद्बुद्ध्यम्बुनिधिप्रबोधविधये, श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः ।। १ ।। ये हेमचन्द्र मुनिमेतदुक्तग्रन्थार्थ-सेवाभिषतः श्रयन्ते । संप्राप्य ते गौरवमुज्ज्वलानां, पदं कलानामुचितं भवन्ति ।।
-श्री मल्लिषेणमूरिकृत स्यादवादमजरी