Book Title: Shravan Jivan me Apramatatta
Author(s): Premchand Kothari
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 3
________________ || 10 जनवरी 2011 | | जिनवाणी हमारा परिजन साधु होकर साधना कर रहा है, अच्छे प्रवचन दे रहा है, बहुत पूछ हो रही है, लेकिन वह आत्मसाक्षी से अप्रमत्त होकर साधना नहीं कर रहा है तो स्वयं भी धोखे में है एवं संघ समाज को भी धोखा दे रहा है। घर की सुख-सुविधा भी छोड़ी एवं इस क्षेत्र में आकर काषायिक परिणतियों में ही फंसा रहे तो वह साधक अपने जीवन-काल के ये स्वर्णिम पल बर्बाद कर रहा है। प्रसंगवश स्वर्गीय लाला रणजीत सिंह कृत आलोयणा का निम्नलिखित दोहा बहुत ही शिक्षाप्रद है कहा भयो घर छाड़ (छोड़) के, तज्यो न माया संग। ज्यूं नाम तजी कांचली, विष न तजियो अंग ।। कुशल विद्यार्थी स्कूल या कॉलेज में प्रवेश करने के साथ ही तन्मयता से अपना अध्ययन करता रहता है, कभी भी अकस्मात् बिना सूचना के परीक्षा का प्रसंग आवे तो भी प्रथम श्रेणी व प्रथम स्थान प्राप्त कर लेता है। इस कुशल विद्यार्थी की तरह साधक को भी आत्मनिरीक्षण, स्वाध्याय, ध्यान आदि सभी क्रियाएँ पूर्ण आत्मसाक्षी से करते रहना चाहिये, ऐसे साधक का कभी भी आयुबन्ध हो या मृत्यु आ जावे, तो वह अवश्य सुगति का अतिथि बनता है। जो श्रमण सोचते हैं कि अंतिम समय का ध्यान रखकर जीवन सुधार लेंगे, वे बड़ी भारी भूल कर रहे हैं, क्योंकि सदा के अभ्यास से ही अंतिम समय सुधर सकता है। अखण्ड बालब्रह्मचारी, सामायिक स्वाध्याय के प्रबल प्रेरक, इतिहास मार्तण्ड, संघ के सजग प्रहरी, संघ एकता में विश्वास करने वाले पूज्य आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी महाराज सा का मुझे निकट से निमाज में सेवा करने का सुअवसर मिला, जिन्होंने शायद कभी लम्बी तपस्या नहीं की होगी। उस महापुरुष ने अंतिम समय में शारीरिक वेदना होते हुए भी समभाव से वेदना सहन की, पूर्ण निस्पृहता दिखाई, तेरह दिन के उपवास हुए एवं अंतिम समय को समाधिमरण महोत्सव के रूप में संपन्न किया। यह साधना उस विभूति की कोई दो चार माह या दो चार वर्ष की नहीं थी, उन्होंने जीवन भर साधना की तब अंतिम समय सुधार पाये एवं आदर्श प्रेरणा छोड़ गये। इसी प्रकार प्रत्येक श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविकाओं को भी अपना लक्ष्य प्राप्ति का अभ्यास सदा करते रहना चाहिये। अनुयोगद्वार सूत्र में आगमकारों ने स्पष्ट बताया है कि श्रमण को सभी प्रकार के सावध व्यापारों (18 पाप आदि) से निवृत्त होकर मूल गुण रूपी संयम, उत्तर गुण रूपी नियम एवं अनशन आदि बारह प्रकार के तप में सदा लीन रहना चाहिये। ऐसा साधक सच्ची सामायिक की, श्रमणत्व की साधना कर रहा है। अतः श्रमण को संयमविरोधी सभी प्रवृत्तियों को आत्मसाक्षी से सदा के लिए तिलांजलि दे देना चाहिये। __ श्रमण-जीवन में साधना के क्षेत्र में अपना विकास हो रहा है या नहीं हो रहा, इसका स्वनिरीक्षण करते रहना चाहिये। स्वनिरीक्षण हेतु कुछ मापदण्ड के बिन्दु नीचे दिये जा रहे हैं:1. मेरे मन में विजातीय द्रव्यों का आकर्षण प्रभाव कम होता जा रहा है या नहीं? नहीं हो रहा हो तो विजातीय द्रव्यों की क्षणभंगुरता का चिन्तन कर उनसे हटने का प्रयास करना चाहिये। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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