Book Title: Shravak Achar ki Prasangikta ka Prashna
Author(s): 
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन १३. दावाग्निदापन-जंगल में आग लगाने का व्यवसाय। तनावों की स्थिति में जी रहा है, सामायिक व्रत की साधना की उपयोगिता १४. तालाब, झील और सरोवर आदि को सुखाना। सुस्पष्ट हो जाती है। वर्तमान में मात्र वेशपरिवर्तन करके कुछ समय १५. व्यभिचार-वृत्ति के लिए वेश्या आदि को नियुक्त कर उनके के लिए बाह्य हिंसक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना सामायिक का बाह्य द्वारा धनोपार्जन करवाना। उपलक्षण से दुष्कर्मों के द्वारा आजीविका रूप तो हो सकता है, किन्तु वह उसकी अन्तरात्मा नहीं है। आज का अर्जन करना। हमारी सामायिक की साधना में समभावरूपी अन्तरात्मा मृतप्राय होती । आधुनिक सन्दर्भ में उपर्युक्त निषिद्ध व्यवसायों की सूची में जा रही है और वह एक रूढ़-क्रिया मात्र बन कर रह गयी है। सामायिक परिमार्जन की आवश्यकता प्रतीत होती है। आज व्यवसायों के ऐसे से मानसिक तनावों का निराकरण और चित्तवृत्ति को शान्त और निराकुल बहुत से रूप सामने आये हैं, जो अधिक अनैतिक और हिंसक हैं। बनाने के लिए कोई उपयुक्त पद्धति विकसित की जाये, यह आज अत: इस सन्दर्भ में पर्याप्त विचार-विमर्श करके निषिद्ध व्यवसायों के युग की महती आवश्यकता है। की एक नवीन तालिका बनायी जानी चाहिए। १०. देशावकासिक व्रत-इस व्रत का मुख्य उद्देश्य आंशिक ८. अनर्थदण्ड-परित्याग-मानव अपने जीवन में अनेक ऐसे रूप से गृहस्थ-जीवन से निवृत्ति प्राप्त करना है। मनुष्य स्वाभाविक पापकर्म करता है, जिनके द्वारा उसका अपना कोई हित-साधन नहीं रूप से परिवर्तनप्रिय है। घर-गृहस्थी के कोलाहलपूर्ण और अशान्त होता। इन निष्प्रयोजन किये जाने वाले पाप-कर्मों से गृहस्थ उपासक जीवन से निवृत्ति लेकर एक शान्त जीवन का अभ्यास एवं आस्वाद को बचाना इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। निष्पयोजन हिंसा और करना ही इसका लक्ष्य है। वैसे भी हम सप्ताह में एक दिन अवकाश असत्य-सम्भाषण की प्रवृत्तियाँ मनुष्य में सामान्य रूप से पायी जाती मनाते हैं। देशावकासिक व्रत इसी साप्ताहिक अवकाश का आध्यात्मिक हैं। जैसे, स्नान में आवश्यकता से अधिक जल का अपव्यय करना, साधना के क्षेत्र में उपयोग है और इस दृष्टि से इसकी सार्थकता को भोजन में जूठन छोड़ना, सम्भाषण में अपशब्दों का प्रयोग करना, स्वास्थ्य अस्वीकार नहीं किया जा सकता। के लिए हानिकर मादक द्रव्यों का सेवन करना, अश्लील और कामवर्द्धक ११. प्रौषाधोपवास- यह व्रत भी मुख्य रूप से निवृत्तिपरक साहित्य का पढ़ना, आदि। निरर्थक प्रवृत्तियाँ अविवेकी और अनुशासनहीन जीवन की साधना के निमित्त है। उपवासपूर्वक विषयवासनाओं पर जीवन की द्योतक हैं। इस व्रत के अन्तर्गत गृहस्थ उपासक से यह नियन्त्रण रखना ही इस व्रत का मूल उद्देश्य है। इसे हम एक दिन अपेक्षा की जाती है कि वह अशुभचिन्तन, पापकर्मोपदेश, हिंसक के लिए ग्रहण किया हुआ श्रमण-जीवन भी कह सकते हैं। इसकी उपकरणों के दान तथा प्रमादाचरण से बचे। इस व्रत के निम्नलिखित सार्थकता वैयक्तिक साधनात्मक जीवन की दृष्टि से ही आँकी जा पाँच अतिचार माने गये हैं सकती है। १. कामवासना को उत्तेजित करने वाली चेष्टाएँ करना। १२. अतिथि-संविभाग व्रत-अतिथि-संविभाग व्रत गृहस्थ के २. हाथ, मुँह, आँख आदि से अभद्र चेष्टाएँ करना। सामाजिक दायित्व का सूचक है। अपने और अपने परिजनों के उदरपोषण ३. अधिक वाचाल होना या निरर्थक बात करना। के साथ-साथ गृहस्थ पर निवृत्त-साधकों और समाज के असहाय एवं ४. अनावश्यक रूप से हिंसा के साधनों का संग्रह करना और अभावग्रस्त व्यक्तियों के भरण-पोषण का दायित्व भी है। प्रस्तुत व्रत उन्हें दूसरों को देना। का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जागृत करना है। ५. आवश्यकता से अधिक उपभोग की सामग्री का संचय करना। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हमारा जीवन पारस्परिक सहयोग और यदि हम उपर्युक्त व्रत और उसके दोषों के सन्दर्भ में विचार करें सहभागिता के आधार पर ही चलता है। दूसरों के सुख-दुःख में सहभागी तो वर्तमान युग में इसकी सार्थकता स्पष्ट हो जाती है। मानव-समाज बनना और अभावग्रस्तों, पीड़ितों और दीन-दुःखियों की सेवा करनामें आज भी ये सभी चारित्रिक विकृतियाँ विद्यमान हैं और एक सभ्य यह गृहस्थ का अनिवार्य धर्म है। यद्यपि आज इस प्रवृत्ति को भिक्षावृत्ति समाज के निर्माण के लिए इनका परिमार्जन आवश्यक है। को प्रोत्साहन देने वाली मानकर अनुपयुक्त कहा जाता है, किन्तु जब श्रावक के उपर्युक्त पाँच अणुव्रतों और तीन गुणव्रतों का बहुत तक समाज में अभावग्रस्त, पीड़ित और रोगी व्यक्ति हैं-सेवा और कुछ सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन से है और हमने जब उनकी सहकार की आवश्यकता अपरिहार्य रूप से बनी रहेगी और यदि शासन प्रासंगिकता की कोई चर्चा की है तो वह सामाजिक दृष्टि से ही की इस दायित्व को नही सम्भालता है तो यह प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है। गृहस्थ उपासक के शेष चार शिक्षाव्रतों में सामायिक, देशावकासिक, है कि वह दान और सेवा के मूल्यों को जीवित बनाये रखे। यह प्रश्न प्रौषधोपवास का सम्बन्ध विशिष्ट रूप से वैयक्तिक जीवन से है। यद्यपि मात्र दया या करुणा का नहीं है, अपितु दायित्व-बोध का है। अतिथि-संविभाग व्रत की व्याख्या पुन: सामाजिक सन्दर्भ में की जा सकती है। उपसंहार ९. सामायिक व्रत- सामायिक समभाव की साधना है। जैन-धर्म के श्रावक-आचार की उपर्युक्त समीक्षा करने के पश्चात् सुख-दुःख, हानि-लाभ, जय-पराजय में चित्तवृत्ति का समत्व ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-श्रावकों के लिए प्रतिपादित आचार सामायिक है। आज के युग में जब मनुष्य मानसिक विक्षोभों और के नियम वर्तमान सामाजिक सन्दर्भो में भी प्रासंगिक सिद्ध होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12