Book Title: Shraman Sanskruti ka Vyapak Drushtikon Author(s): Divyaprabhashreeji Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 3
________________ GI आस्था रखने वाला श्रमण छहों निकायों को अपनी वस्त्र, पात्र तो क्या इस शरीर पर भी ममत्व न || आत्मा के समान माने / त्रस और स्थावर प्रत्येक रखे। जीवों की हिंसा से पर होवे / कीट, पतंग आदि श्रमण ईर्या का संशोधन करता हुआ प्रकाशित जीव शरीर या उपकरणों पर चढ़ भी जाय तो मार्ग पर दया भाव से प्राणियों की रक्षा करने के श्रमण सावधानीपूर्वक उन्हें एकान्त में रखे। लिए चार हाथ जमीन देखकर चले। || क्रिन्तु त्रस जीवात्मा की किसी भी प्रकार से हिंसा सोलह प्रकार की भाषा का परित्याग कर हित, CB न करे, न करावे, न करने वालों की अनुमोदना करे मनसा वाचा कर्मणा। मित और मधुर भाषा का प्रयोग करे / श्रमण न स्वयं असत्य बोले, न दूसरों को असत्य __वीर चर्या के द्वारा प्राप्त हुए और श्रावकों बोलने की प्रेरणा दे और न असत्य का अनुमोदन द्वारा भक्तिभावपूर्वक दिये गये निर्दोष आहार को | करे / क्रोध से या भय से अपने लिए या दूसरों के यथोचित समय और मात्रा में ग्रहण करे। ML लिए झूठ न बोले / सत्य हो किन्तु प्रिय न हो तो श्रमण अपने उपकरणों को उपयोग से ले और 2 SM भी न बोले किन्तु सत्य का प्रतिपक्षी बना रहे। रखे। तथा किसी प्रकार के जीवों को बाधा पीड़ा उपस्थित न होवे ऐसा स्थान को देखकर श्रमण मलश्रमण ग्राम नगर या अरण्य आदि कहीं भी मूत्रादि त्यागे। मा अल्प या बहुत, छोटी या बड़ी, सचित्त या अचित्त कोई भी वस्तु बिना दी हुई न ले, न दूसरों को तथा श्रमण तीन गुप्तिओं से युक्त होवेप्रेरित करे और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन करे (1) मनगुप्ति-राग-द्वेष की निवृत्ति या मन इतना ही नहीं तप, वय, रूप और आचार भाव की का संवरण। भी चोरी न करे किन्तु अचौर्य भाव में अनुरक्त (2) वचनगुप्ति-असत्य वचन आदि की रहे। निवृत्ति या वचन का मौन / _श्रमण देव, मनुष्य या तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का (3) कायगुप्ति-हिंसादि की निवृत्ति या कायिक सेवन न स्वयं करे, न दूसरों को प्रेरित करे न मैथुन- संवरण / CB सेवन का अनुमोदन करे किन्तु नववाड विशुद्ध ब्रह्म- इस प्रकार जैन श्रमण संस्कृति में श्रमण का 4 चर्य का पालन करे। अत्यन्त महत्व है। आध्यात्मिक विकास क्रम में हा श्रमण किसी भी पदार्थ के प्रति फिर वह बड़ा उसका छठा गुणस्थान है। इसी प्रकार श्रमणोचित का हो या छोटा, अल्पमात्रा में हो या बहुमात्रा वाला प्रक्रिया में यदि श्रमण निरन्तर साधना करता रहे हो, सचित्त हो या अचित्त ममत्व न रखे / न दूसरों तो क्रमशः ऊर्ध्वमुखी विकास करता हुआ अन्त में | को ममत्व रखने के लिए प्रेरित करे, न ममत्व का चौदहवें गुणस्थाम तक पहुँचकर अजर-अमर सिद्ध, अनुमोदन करे तथा खाद्य पदार्थ का संग्रह न करे। बुद्ध और मुक्त हो जाता है / 6 चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ des Jain Edition International bor Sivate & Personal Use OnlyPage Navigation
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