Book Title: Shraman Mahavir Tirth ka Pramukh Stambh Author(s): Vinaysagar Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 2
________________ महोपाध्याय विनयसागर हुई थी। निष्कर्ष यह है कि वर्तमान के समस्त गच्छ एक ही आचार्य की संतानें हैं और इन सबका एक ही गण है और वह है, कोटिक गण । ___ अधुना गच्छों के व्यवस्थापक नेता भी आचार्य, महोपाध्याय, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, पन्यास एवं गणि पद को सुशोभित करते हैं। महिला-श्रमणी वर्ग में सुसंचालिका अधिकारिणी पूर्व काल के समान ही आज भी "महत्तरा, प्रवर्तिनी, स्थविरा और गणिनी" पद को विभूषित करने वाली होती हैं। प्रभु महावीर द्वारा स्थापित तीर्थ-चतुर्विध संघ में श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका होते हैं एवं ये अपनी विशेषताओं से इस तीर्थ की संस्कृति को संवारते/निखारते हैं। चतुर्विध संघ के प्रासाद का मुख्य स्तम्भ श्रमण है, अतः इस पर विवेचन अपेक्षित है। श्रमण का अर्थ: __ श्रमण शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों के अनुसार पूर्वाचार्यों/शास्त्रकारों ने जो अर्थ परिभाषित किये हैं, वे निम्नांकित हैं१. जो तप करता है. वह श्रमण है। २. जो पाँचों इन्द्रियों और मन को शमित करते हैं अथवा सांसारिक विषयों से उदासीन ___ रहते हैं या तप करते हैं, वे श्रमण हैं । ३. जो स्वयं के श्रम/पुरुषार्थ से भव-बन्धनों को तोड़ता है, स्वयं को मुक्त करता है। वह श्रमण है। ४. जो स्व-स्वरूप की उपलब्धि के लिये अन्य किसी की अपेक्षा रखे बिना श्रममयी साधना करता है, वह श्रमण है। ५. जो त्रस-स्थावर रूप समस्त प्राणियों में समानभाव रखते हुए श्रद्धापूर्वक तप का आचरण करता है, वह श्रमण है। श्रमण शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका प्राकृत भाषा का रूप है--"समण"। इसके पारिभाषिक अर्थ प्राप्त होते हैं :१. जो सभी प्रणियों पर समानता का भाव रखता है, वह समण है। २. जो समता भाव का धारक है, वह समण है। ३. जो किसी से द्वेष नहीं करता, जिसको सभी जीव समान भाव से प्रिय हैं, वह समण है। ४. जो सब जीवों के प्रति समान मन/हृदय रखता है, वह समण है। ५. जो सु-मन वाला है, जो कभी भी पापमना नहीं होता, अर्थात् जिसका मन सर्वदा स्वच्छ, प्रसन्न और निर्मल रहता है, वह समण है। ६. जो स्वजन एवं परजन में, मान एवं अपमान में, प्रशंसा और गाली में सर्वत्र और सर्वदा समसन्तुलित रहता है, वह समण है। ७. जो शत्रु एवं मित्र में समान रूप से प्रवृत्ति करता है, वह समण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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