Book Title: Shishupal vadha Mahakavyam
Author(s): Gajanan Shastri Musalgavkar
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 205
________________ द्वितीयः सर्गः १२३ सभ्वयः - कालज्ञस्य महीपतेः तेजः क्षमा वा एकान्तं न, रसभावविदः कवेः एकम् ओजः प्रसादो वा न ॥ ८५ ॥ हिन्दी अनुवाद - शृङ्गारादि रस और भावों का ज्ञाता कवि अपने प्रबन्धरस क अनुकूल जैसे कभी ओजगुणयुक्त' और कभी प्रसादगुणयुक्त प्रबन्ध की रचना करता है, वैसे ही समय का ज्ञाता राजा भी कभी शान्ति और कभी उग्रताका रूप धारण करता है ।। ८५ ।। अर्थात् अवसर को जाननेवाले राजा को समयानुसार कभी तेज का ( दण्ड ) याचमा (मृदुता ) का प्रयोग करना चाहिये । विशेष — कौटिल्य ने कहा है कि नीतिज्ञ व्यक्ति को चाहिये कि वह देश-काल का भली-भाँति विचार करले । "नीतिशो देशकालौ परीचेत ॥ ८५ ।। " प्रसङ्ग - प्रस्तुत श्लोक में उद्धवजी बलराम के पूर्व कथित इस वचन - " पुनः पुनः विरोध करने वाले को कौन क्षमा करेगा ?” २/४३-- -- का उत्तर देते हैंयदुक्तं 'क्रियासमभिहारेण विराध्यन्ते क्षमेत कः' इति, तत्रोत्तरमाह - कृतापराधोऽपि परैरनाविष्कृतविक्रियः । असाध्यः कुरुते कोपं प्राप्ते काले गदो यथा ॥ ८६ ॥ कृतापचार इति ॥ परैः शत्रुभिः कृतः अपचारोऽपकारः अपथ्यं च यस्य सः, तथाप्यनाविष्कृतविक्रियोऽन्तर्गृढविकारः । अत एवासाध्योऽप्रतिसमाधेयः सन् गदो यथा रोग इव । ' इववद्वा यथाशब्द' इति दण्डी । काले बलक्षयावसरे प्राप्ते सति कोपं कुरुते । प्रकुप्यतीत्यर्थः । तदुक्तम् 'वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्ययः । तमेव चागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मना ॥ इति ॥ ८६ ॥ १. ओजः समासभूयस्त्वं मांसलं पदडम्बरम् ।" बन्धदाढर्य मित्यर्थः । २. "प्रसादो बन्ध थिल्यं रचना सरला तथा " । ३. मनुने कहा है कि राजा प्रयोजन के अनुसार कार्यं तथा शक्ति का वास्तविक विचार कर कार्य सिद्धि के लिए बार-बार अनेक रूप धारण करता है । ७ /१० ३. पचारोऽपि ।

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