Book Title: Shiksha loka aur Abhijan Takrar Author(s): Nand Chaturvedi Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 2
________________ प्रकाश चीन्ह लेते हैं तो वे ब्रह्मपुर नगर के बीचोंबीच आदित्य के बाबा पं. ललित नारायण की मूर्ति स्थापित करेंगे। हारने पर प्रीतपुर की पाठशाला में आदित्य पाँच वर्ष तक पढ़ायेंगे। दोनों पक्ष सहमत हो गये । पर निक्षित हुए दिन एक विशाल गाड़ी 'तिलकाष्ठमहषिबन्धनम्' नामक महाग्रंथ रेशमी वस्त्र से सजाकर रखा गया। इस विशाल गाड़ी को तीन बैलों की जोड़ियों से खींचा जा रहा था। इधर से शास्त्रार्थ के लिए तैयार किये गये रवीन्द्र भारती गाड़ी के आगे चल रहे थे। पीछे चल रहे प्रसन्नचित्त गाँव वाले जय बोलते जा रहे थे। उधर आदित्य अपने जनपद में प्रसिद्धि विस्तार के लिए अत्यन्त उत्साहित थे। जिस तरफ से ग्रंथ लेकर गाँव वाले आ रहे थे उधर वे बार-बार देखते, कुछ कदम चल कर जाते और लौट आते। कुछ दिन चढ़ने पर उन्होंने दूर धूल उड़ती देखी और जय जयकार सुनी। थोड़ी देर में उन्हें गाड़ी और जन-समूह दिखाई दिया। कुछ अचंभे के साथ उन्होंने तीन जोड़ी बैलों से खींची जाने वाली गाड़ी देखी। उन्हें कुछ-कुछ ऐसा लगा कि उसमें जैसे कोई ग्रंथ रखा हो। आदित्य एक क्षण को भय-कम्पित हुए लेकिन फिर साहस के साथ सभास्थल पर पहुँच गए। दोनों ओर के दर्शक प्रतिस्पर्धा का आनन्द लेने के लिए उत्सुक थे महाग्रंथ की गाड़ी नियत स्थान पर खड़ी थी। प्रीतिपुर के पंडित रवीन्द्र भारती और काशी के स्नातक आदित्य नारायण के बीच औपचारिक अभिवादनादि के बाद रवीन्द्र भारती ने विनम्रतापूर्वक आदित्य नारायण से गाड़ी पर रखे महाग्रंथ का नाम बताने को कहा। आदित्य नारायण दरअसल मन-ही-मन हार चुके थे। गाड़ी पर रखे विशाल ग्रंथ को, जिसे तीन पुष्ट बैलों की जोड़ी खींच कर ला रही थी, दूर से देख कर ही आदित्य भय और अवसाद से घिर गये थे । वे उस महाग्रंथ का नाम नहीं बता सके, जिसका कोई नाम था ही नहीं वह तो प्रीतिपुर वालों ने काशी से आये इस स्नातक (ब्राह्मण) की हेकड़ी खत्म करने के लिए अपनी प्रत्युत्पन्नमति (कुशाग्र बुद्धि) से तिल के डंखलों को सजा क भैंस के जेवड़ों से बाँध (तिलकाष्ठ - महषिबंधनम् ) दिया था । इस तथ्य को मैं दुहरा दूं कि जीवन के विभिन्न पक्षों की निगहबानी करने के लिए लोक ने कोई अटल सिद्धान्त या सूत्र न बनाये हों लेकिन अपने हितों की निगरानी करने की दक्षता उसने निरन्तर दिखाई है। शिक्षा के बारे में लोक की यह जागरुकता विलक्षण है किस मुद्दे पर लोक ने अभिजन से Jain Education International तकरार नहीं की है? लेकिन प्राथमिकता लोकमंगल की विस्तार की, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की है। इधर शिक्षा की बात करें तो शास्त्र ज्ञान के विरुद्ध दुनिया के काम आने वाली सुमति के पक्ष में लोक- कविता ने जबरदस्त दस्तक दी है। कबीर ने उबाऊ 'पोथी ज्ञान' के बरकस दुनिया का 'आँखों देखा' ज्ञान शिरोधार्य किया है और संकीर्ण संस्कृत-कूप-जल के बजाए बहते भाषानीर से अपनी कविता का समर्पण। लोक ने पंडिताऊ दुरभिमान का मौका मिलते ही प्रतिवाद किया और 'भोले भावों" की रचना करने वाली जन-शिक्षा का समर्थन विश्वविद्यालयों के 'तकनीकी ज्ञान' की खिल्ली उड़ाती यह लोक कथा की विदग्ध आलोचनात्मक दृष्टि के गहरे बोध की जानकारी देगी। ये श्रीधर शास्त्री हैं, कुलीन ब्राह्मण और काशी के शिक्षितस्नातक कई शास्वार्थों के विजेता काशी निवास करते हैं और शास्त्र अनुमोदित मार्ग पर चलते हैं। इस समय श्वसुर - घर जा रहे हैं। कोई गाड़ी, घोड़ा, पालकी या रथ श्रीधर के पास नहीं है। कई बीहड़ जंगलों को पार करते जाना पड़ेगा शास्त्रीजी को । बहरहाल, अब तक तो कोई कष्ट नहीं आया था लेकिन अब एकदम सामने मृत गधा पड़ा है, शायद, मरे हुए दिन-दो दिन हुए हों शरीर फूल गया है, दुर्गंध के कारण साँस लेना कठिन है। चारों तरफ घेर कर बैठे गिद्ध और कौवे लाश को लेकर भयानक उपद्रव कर रहे हैं। क्या करें श्रीधर शास्त्री ? क्या कहता है शास्त्र ? शास्त्र कहता है शव का दाह -कर्म करो । श्रीधर शास्त्र के निर्देश का पालन करेंगे। वे गधे को उठाकर सम्मानपूर्वक श्मशान तक ले जाने की कोशिश में लग गये । लाख कोशिश करने पर भी भारी गधा टस से मस न हुआ। शास्त्री इस प्रयत्न में थक गये। अब क्या कहता है शास्त्र ? कहता है कि शरीर में सबसे महत्त्वपूर्ण सिर है। उसका दाह कर्म कर दो। लेकिन गधे का सिर कहाँ है? इस असमंजस में उन्होंने मृत गधे की गरदन काटने का निश्चय किया। तेज धार वाले किसी शस्त्र के न मिलने के कारण गरदन काटने का काम भी नहीं हो सका । श्रीधर चिंता में पड़ गये । सहसा ही जैसे बिजली कौंधी हो उन्हें शास्त्र-वचन याद आया कि आँख ही रोशनी का केन्द्र है इसलिए सिर न हो तो आँख से भी काम चल सकता है। किसी तरह किसी भी क्रूरता से मरे हुए गधे की आँख निकाल कर श्रीधर शास्त्री ने दाह संस्कार किया। अब उन्हें यह चिंता सताने लगी कि वे 'भद्र' नहीं हुए हैं। यानी उन्होंने न तो सिर का मुंडन कराया है न मूँछे, दाढ़ी मुँडवाई हैं। ० अष्टदशी / 1600 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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