Book Title: Shiksha ka Vartaman Swarup
Author(s): Suresh Sisodiya
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf

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Page 1
________________ डॉ सुरेश सिसेदिया साधन बनकर रह गई है। आज शिक्षक और शिक्षार्थी के लिए शिक्षा का स्वरूप केवल जीविकोपार्जन का साधन बनने मात्र तक सीमित रह गया है। वर्तमान पाठ्यक्रम में जो विषयवस्तु है वह भी व्यक्ति को डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट, प्रशासनिक अधिकारी आदि की शैक्षणिक योग्यता अर्जित कराने तक सीमित हैं किन्तु उस सम्पूर्ण पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा का कहीं कोई प्रावधान नहीं है। वर्तमान शिक्षा पद्धति के माध्यम से विद्यार्थी को उच्च शिक्षा देकर भी हम एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं शान्तिप्रिय समाज की रचना नहीं कर सके हैं। स्कूली शिक्षा का स्वरूप : बच्चा जन्म से लेकर विद्यालय स्तर तक जहाँ अध्ययन करता है वहाँ की स्थिति यह है कि अभिभावक बच्चे को स्कूल में प्रवेश दिलाने और उसकी फीस की व्यवस्था कर देने मात्र में अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री मान लेते हैं। वह कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं करते हैं कि स्कूल में बच्चा किन साथियों की संगति में रहता है, उसके शिक्षक उसे पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त कोई नैतिक अथवा चारित्रिक शिक्षा देते भी हैं अथवा शिक्षा का वर्तमान स्वरूप नहीं? इसी के समानान्तर जब हम इसकी दूसरी ओर देखते है तो अधिकांश शिक्षकों का स्तर भी आज नैतिकता और चारित्र वर्तमान युग उच्च शिक्षा की आधारशिला पर टिका हुआ है। यह समय ज्ञान-विज्ञान के युग के रूप में जाना जाता है। मात्र के धरातल पर टीका हुआ प्रतीत नहीं होता क्योंकि शिक्षकों के २०वीं शताब्दी में शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में जितना विकास चयन का आधार वर्तमान में नैतिक मूल्यों की अपेक्षा विद्यालयों हुआ है उतना विकास विगत सौ वर्षों में नहीं हुआ होगा और इस के संचालकों की मेहरबानी, प्रधानाध्यापक की चाटुकारिता और गति को देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दस वर्षों राजनीति के प्रभाव से होने लगा है। परिणाम स्वरूप ज्ञान और में ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में जो प्रगति होना सम्भावित है, चारित्र से शून्य किन्तु चाटुकारिता में चतुर व्यक्ति आज शिक्षक उसकी कल्पना नहीं की जा सकती। बच्चे के जन्म लेने के साथ वर्ग के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। अत: उनसे बच्चों के ही वर्तमान में अभिभावक उसके आवास - भोजन से अधिक चरित्र निर्माण की विशेष अपेक्षाएं नही रखी जा सकती हैं। मेरे चिंतित उसकी शिक्षा को लेकर रहते हैं। प्राचीन समय में शिक्षा लेखन का यह अर्थ कदापि नहीं है कि सम्पूर्ण शिक्षक वर्ग चारित्र का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का और उसमें सद्गुणों का शून्य है किन्तु व्यवहार में शिक्षकों को आचरण की जो बहुलता विकास करना रहा था किन्तु वर्तमान में तो शिक्षा के मूल उद्देश्य हम देख रहे हैं उसी आधार पर मेरा यह सोचना है अन्यथा से ही हम प्राय: भटक चुके हैं। आज शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को चरित्रनिष्ठ और जीवनदर्शन शिक्षा को समर्पित शिक्षकों का जीवन और जगत के सम्बन्ध की जानकारियाँ भर देना मात्र रह सर्वथा अभाव भी समाज में नहीं है ऐसे चुनिन्दा चरित्रवान गया है। प्राचीन समय में शिक्षा को जीविकोपार्जन के साधन से शिक्षको के कारण ही आज भी शिक्षकों को वन्दनीय एवं नहीं जोड़ा जाता था किन्तु आज शिक्षा आजीविका का साधन पूजनीय मानकर गरिमा प्रदान की जाती है किन्तु बहुसंख्यक बनकर रह गई है। तीव्र गति से इसका व्यवसायीकरण हुआ है शिक्षकों को अपने ज्ञान के साथ ही स्वयं में चारित्रगुणों को हो रहा है, इससे ऐसा विदित होता है कि हम शिक्षा के मूलभूत विकसित करने की आज महती आवश्यकता है। उद्देश्यों से ही भटक रहे हैं। महाविद्यालयी शिक्षा का स्वरूप : शिक्षा का वर्तमान स्वरुप : महाविद्यालयी शिक्षा का स्वरूप तो और अधिक विकृत वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्रों के नैतिक एवं चारित्रिक होता जा रहा है। अधिकांश महाविद्यालयों में छात्र इसलिए नहीं विकास से संदर्भित नहीं होकर मात्र उसकी आजीविका का पढ़ रहा है कि उसे पढ़ाई पूरी कर संस्कारवान अथवा चारित्रवान ० अष्टदशी / 1110 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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