Book Title: Shiksha Shikshan evam Shikshan Author(s): Kahaini Manavat Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 1
________________ डॉ० कहानी भानावत व्याख्याता (चित्रकला) राजकीय मीरा कन्या महाविद्यालय, उदयपुर (राज०) शिक्षा, शिक्षक एवं शिक्षण शिक्षण विधि शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य होने वाली शैक्षिक अन्तःक्रिया है। शिक्षण, शिक्षक एवं शिक्षार्थी तीनों उस तिराहा की तरह हैं, जहां से शिक्षण रूपी नदी का उद्गम होकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी उसके दो समानान्तर किनारे बनते हैं। दोनों का समन्वय, सौहार्द एवं सहकार जैसे नदी को पूर्वांगी, पानीदार और पयस्विनी बनाते हैं, वैसे ही शिक्षक और शिक्षार्थी की आपसी समझ, सकारात्मक सोच और सहिष्णुता शिक्षण को गतिवान, मतिवान एवं मंगलवान बनाते हैं। इसमें शिक्षक की भूमिका अहम एवं सर्वोपरि है जैसे युद्ध में किसी योद्धा की होती है। युद्ध में विजय करने के लिए किसी योद्धा का हथियारों से लेस होना ही पर्याप्त नहीं है उन हथियारों के प्रयोग और परिस्थिति को पहचानते हुए उनकी उपयोग विधि का विवेक जरूरी है। इसी प्रकार एक शिक्षक के लिए यह जानना जरूरी है कि शिक्षण की विविध पद्धतियों में से वह कौनसी पद्धति को अंगीकार करे इससे पूर्व वह यह भी जाने कि किस प्रकार के, कौन से छात्र हैं, साथ ही किस विषय का कौनसा है। यहां शिक्षक को अपने मनोवैज्ञानिक मन से शिक्षण का वह सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक धरातल खोजना होगा जिससे बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास हो सके। वह ऐसा Jain Education International शिक्षण दे जो बोधगम्य तो हो पर बोझिल न हो। जो अनुरंजन मूलक तो हो पर उदासीमूलक न हो। जो बच्चों के मन में जिज्ञासा पैदा करे, जुगुप्सा नहीं । यह सही है कि सभी बच्चे एक जैसे नहीं होते। वे कुंद बुद्धि के भी होते हैं तो क्षिप्र बुद्धि के भी। वे न्यून अंगी भी हो सकते हैं तो कौतुक कर्मी भी वे अध्ययन-जीवी भी हो सकते हैं तो अन्तर्मुखी भी। वे मस्तमौजी भी हो सकते है तो अल्हड़ आनन्दी भी। इन सभी प्रकार की संगतियों और विसंगतियों के बीच एक शिक्षक को अपने शिक्षण-कर्म की उम्दा पैठ, उन्नत पहचान और उत्कृष्ट परम्परा का निर्वाह करना होता है यह ऐसी घड़ी होती है जब शिक्षक ही शिक्षार्थियों की परीक्षा नहीं ले रहा होता है, बच्चे भी शिक्षक को विभिन्न प्रकार की परीक्षाओं से गुजारते हुए देखे जाते हैं। प्राचीन शिक्षण पद्धति अब बेमानी, व्यर्थ, अव्यावहारिक एवं अवैज्ञानिक हो गई है। अब " घंटी बाजे घमघम, विद्या आवै गम-गम” का नुस्खा देकर छात्रों को नहीं पढ़ाया जा सकता । अनुपस्थित छात्र को टांगाटोली कर नहीं लाया जा सकता। किसी के कान की पपड़ी पर कंकरी रखकर मसलना या लप्पड़ से गाल लालकर शिक्षा की औखध नहीं पिलाई जा सकती । सजाकारी शिक्षा के जमाने लद गये। कई प्रभावशाली विधियों का नया-नया उन्मेष हो रहा है उनसे शिक्षक को अपना तादात्म्य बिठाना होना। उसे स्वयं भी शिक्षण- कला के कौशल तलाशने होंगे और अपने व्यक्तित्व के अनुरूप पढ़ाये जाने वाले पाठ में बे गुर देने होंगे जिनसे शिक्षार्थी क्रियाशील बने । उसमें चिंतनक्षमता का विकास हो। उसकी तर्क शक्ति प्रांजल बने । उसमें मानवीय मूल्यों का वपन हो । वह आगे जाकर अच्छा आदमी बने तब गीतकार की यह पंक्ति नहीं गुनगुनानी पड़े अखबार की रद्दी तो फिर भी काम की, आदमी रद्दी हुआ किस काम का ? अब भय और कम्पन देने वाले, चमड़ी उधेड़ने वाले, फफोले देने वाले और विवाहोत्सव पर ढूंटिया टूटकी के खेलों में गीतों द्वारा महिलाओं में बिच्छू चढ़ाने, उतारने जैसे टोटकों से कोई आदर्श शिक्षक नहीं बन सकता। शिक्षा कोई जादू टोना या नटों भवाइयों की तरह कौतुक कर्म नहीं है, वह जीवन निर्माणकारी संजीवनी है। कमल का वह फूल है जिस पर जल का दाग भी नहीं लग सकता । गूलर का वह फल है। जो वर्ष में केवल एक बार फलित होता हैं वह भी शरद पूर्णिमा की श्वेत धवल रात को ऐन बारह बजे और जिस ० अष्टदशी / 880 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2