Book Title: Shastra ka Arth Karne ki Paddhati aur Char Anuyoga
Author(s): Todarmal Pandit
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 2
________________ चार अनुयोग [आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी की असाधारण विद्वत्ता और अमोघ पाण्डित्य पूर्णतया सर्वमान्य है। 'मोक्षमार्गप्रकाश' पंडितजीकी अलौकिक मौलिक कृति रही। मोक्षमार्गप्रकाश के आठवे अध्याय में चार अनुयोगों का महत्त्वपूर्ण विवेचन पूर्णरूपेण आया है। जैन साहित्य के और जैनसिद्धांत के मर्मका मूलग्राही ज्ञान होने के लिए चारों अनुयोगों का विभाजन, अनुयोगका प्रयोजन, विषयविवेचन पद्धति आदि विषयक यथार्थ कल्पना आना अति आवश्यक है। इस दृष्टि से मोक्षमार्गप्रकाश के आठवे अध्याय का मुख्य मुख्य अंश पंडितजी केहि शब्दों में (प्रचलित हिन्दी में परिवर्तित रूप में) भावार्थ में विसंगति न हो इसकी सावधानीपूर्वक दक्षता लेकर प्रारंभ में उद्धृत किया जाता है जो जिनवाणीके रसास्वादमें दीपस्तंभके समान मार्गदर्शक होगा।] अब मिथ्यादृष्टि जीवों को मोक्षमार्गका उपदेश देकर उनका उपकार करना यही उत्तम उपकार है। तीर्थंकर, गणधरादिक भी ऐसा ही उपकार करते हैं; इसलिए इस शास्त्रमें भी उन्हींके उपदेशानुसार उपदेश देते हैं । वहाँ उपदेशका स्वरूप जाननके अर्थ कुछ व्याख्यान करते हैं; क्योंकि उपदेशको यथावत् न पहिचाने तो अन्यथा मानकर विपरीत प्रवर्तन करे । इसलिए उपदेशका स्वरूप कहते हैं--- जिनमतमें उपदेश चार अनुयोगके द्वारा दिया है— प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यांनुयोग, यह चार अनुयोग हैं । वहाँ तीर्थंकर-चक्रवर्ती आदि महान पुरुषोंके चरित्रका जिसमें निरूपण किया हो वह 'प्रथमानुयोग है। तथा गुणस्थानमार्गणादि रूप जीवका व कर्मोंका व त्रिलोकादिकका जिसमें निरूपण हो वह 'करणानुयोग है । तथा गृहस्थ-मुनिके धर्म आचरण करनेका जिसमें निरूपण हो वह 'चरणानुयोग है । तथा षद्रव्य, सप्ततत्त्वादिकका व स्व-परभेद-विज्ञानादिकका जिसमें निरूपण हो वह 'द्रव्यानुयोग है । अब इनका प्रयोजन कहते हैं : प्रथमानुयोगका प्रयोजन प्रथमानुयोगमें तो संसारकी विचित्रता, पुण्य-पापका फल, महन्त पुरुषोंकी प्रवृत्ति इत्यादि निरूपणसे जीवोंको धर्ममें लगाया है। जो जीव तुच्छबुद्धि हों वे भी उससे धर्मसन्मुख होते हैं, क्योंकि वे जीव सूक्ष्म निरूपणको नहीं पहिचानते, लौकिक कथाओंको जानते हैं, वहाँ उनका उपयोग लगता है। तथा प्रथमानुयोगमें लौकिक प्रवृत्तिरूप ही निरूपण होनेसे उसे वे भलीभाँति समझ जाते हैं। तथा लोकमें तो राजादिककी १. रत्नकरण्ड २-२, २. रत्नकरण्ड २-३; ३. रत्नकरण्ड २-४ ४. रत्नकरण्ड २-५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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