Book Title: Shad darshan Samucchaya ki Samiksha
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf

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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : १७ अनुवादके क्षेत्रमें पं० महेन्द्रकुमारजी ने मूल टीकाकी अपेक्षा भी अर्थ में विस्तार किया है किन्तु इस विस्तार के कारण उनकी शैली में जो स्पष्टता और सुबोधता आई है वह निश्चय ही ग्रन्थको सरलतापूर्वक समझाने में सहायक होती है । उदाहरण के रूप में ईश्वरके सृष्टिकर्तृत्वको सरल शब्दों में समोक्षा करते हुए बे लिखते हैं - अच्छा यह भी बताओ कि ईश्वर संसारको क्यों बनाता है ? क्या वह अपनी रुचिसे जगत्को गढ़ने बैठ जाता है ? अथवा हम लोगोंके पुण्य-पापके अधीन होकर इस जगत् की सृष्टि करता है या दया के कारण यह जगत् बनाता है या उसने क्रीड़ाके लिए यह खेल-खिलौना बनाया है। किंवा शिष्टोंकी भलाई और दुष्टों को दण्ड देनेके लिए यह जगत्-जाल बिछाया है या उसका यह स्वभाव ही है कि वह बैठे ठाले कुछ न कुछ किया ही करे। यदि हम उनकी इस व्याख्या को मूलके साथ मिलान करके देखते हैं तो यह पाते हैं कि मूल टीका मात्र दो पंक्तियों में है जबकि अनुवाद विस्तृत है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका यह अनुवाद शब्दानुसारी न होकर विषयको स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे ही हुआ है । पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के इस अनुवाद शैलीकी विशेषता यह है कि वे इसमें किसी दुरूह शब्दावलीका प्रयोग न करके ऐसे शब्दों की योजना करते हैं जिससे सामान्य पाठक भी विषयको सरलतापूर्वक समझ सके । इस अनुवादसे ऐसा लगता है कि इसमें पंडितजीका उद्देश्य अपने वैदुष्य का प्रदर्शन करना नहीं है, अपितु सामान्य पाठकको विषयका बोध कराना है । यही कारण है कि उन्होंने मूल टीकासे हटकर भी विषयको स्पष्ट करने के लिए अपने ढंग से उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। पं० महेन्द्रकुमारजीके इस अनुवादकी दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी व्याख्यामें जनसामान्य की परिचित शब्दावलीका ही उपयोग किया है । उदाहरणके रूप में जैनदृष्टिसे ईश्वरके सृष्टिकर्ता होनेकी समीक्षा के प्रसंग में वे लिखते हैं कि यदि ईश्वर हम लोगोंके पाप-पुण्य के आधारपर ही जगत्की सृष्टि करता है तो उसकी स्वतन्त्रता कहाँ रहो । वह काहेका ईश्वर । वह तो हमारे कर्मोंके हुकुमको बजानेवाला एक मैनेजर सरीखा ही हुआ । यदि ईश्वर कृपा करके इस जगत्‌को रचता है तो संसारमें कोई दुःखी प्राणी नहीं रहना चाहिए, खुशहाल और सुखी ही सुखी उत्पन्न हो । इस शब्दावलीमें हम स्पष्ट अनुमान कर सकते हैं। कि पंडितजीने दर्शन जैसे दुरूह विषयको कितना सरस और सुबोध बना दिया है । यह कार्य सामान्य पंडित IT नहीं अपितु एक अधिकारी विद्वान् का ही हो सकता है । वस्तुतः यदि इसे अनुवाद कहना हो तो मात्र इस प्रकारका कहा जा सकता है कि उन्होंने टीकाके मूल तर्कों और विषयोंका अनुसरण किया है किन्तु यथार्थ में तो यह टोकापर आधारित एक स्वतन्त्र व्याख्या | दर्शन जैसे दुरूह विषयके तार्किक ग्रन्थोंकी ऐसी सरल और सुबोध व्याख्या हमें अत्यन्त कम ही देखने मिलती है । यह उनकी लेखनीका ही कमाल है कि वे बात-बात में हो दर्शनकी दुरूह समस्याओं को हल कर देते हैं । हरिभद्रके ही एक ग्रन्थ शास्त्रवार्तासमुच्चयकी टीका अनुवाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयके पूर्व कुलपति स्व० पं० बद्रीनाथ शुक्लने किया है किन्तु उनका यह अनुवाद इतना जटिल है कि अनुवादकी अपेक्षा मूलग्रन्थसे विषयको समझ लेना अधिक आसान है । यही स्थिति प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, अष्टसहस्री आदि जैनदार्शनिक ग्रन्थोंके हिन्दी अनुवाद की है। वस्तुतः किमो व्यक्तिका वैदुष्य इम बात में नहीं झलकता कि पाठकको विषय अस्पष्ट बना रहे, वैदुष्य तो इसी में हैं कि पाठक ग्रन्थको सहज और सरल रूप में समझ सके | पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य की यही एक ऐसी विशेषता उन्हें उन विद्वानोंकी उस कोटिमें लाकर खड़ी कर देती है जो गम्भीर विषयको भी स्पष्टता के साथ समझने और समझाने में सक्षम हैं । सामान्यतया संस्कृतके ग्रन्थोंके व्याख्याताओं या अनुवादकों को यह समझने में एक कठिनाई यह होती ३-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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