Book Title: Sanmati Tirth Ki Sthapana Author(s): Amarmuni Publisher: Z_Pragna_se_Dharm_ki_Samiksha_Part_02_003409_HR.pdf View full book textPage 8
________________ संघकर नहीं। तीर्थ में जो पवित्रता है, वह अन्य में नहीं। तीर्थ संस्थापक महाप्रभु का दार्शनिक क्षेत्र में सुप्रसिद्ध एक नाम है-सन्मति। इसलिए आज से हम अपने आपको 'सन्मति तीर्थ' के नाम से सम्बोधि त करेंगे और जन-जन को सन्मति-तीर्थ का बोध देंगे, उस महान् सत्य का बोध कराएँगे। श्रमण भगवान् महावीर का समवसरण भूमि पर तीर्थ-स्थापना के 2543 वें वर्ष के पावन-प्रसंग पर 'सन्मति-तीर्थ की उद्घोषणा की जा रही है। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि तीर्थंकर समवसरण में देशना देने के लिए सिंहासन पर बैठते हैं, तब 'नमो तित्थस्स' के रूप में तीर्थ को नमस्कार करते हैं। मैं कल महान समन्वयवादी आचार्य हरिभद्र के महान् ग्रन्थ 'ललित विस्तरा' का अध्ययन कर रहा था। उसमें एक प्रश्न है-"भगवान् के द्वारा तीर्थ को यह वन्दन किसलिए।" आचार्य ने कहा-यह तो एक कल्प है। क्योंकि तीर्थंकर का महत्त्व तीर्थ-स्थापना है। संसार-सागर को तैरकर पार करने का महत्त्वपूर्ण साधन है तीर्थ। इसलिए धर्म तीर्थ महान् है। इसी कारण भगवती सूत्र में 'नमो तित्थस्स' और ललित विस्तरा में आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'नमस्तीर्थाय' लिखकर तीर्थंकरों द्वारा तीर्थ को नमस्कार करने का उल्लेख किया है। मैं विचार करता हूँ कि तीर्थ कितना पावन एवं महान् है कि अपनी रचना को रचनाकार स्वयं नमस्कार करता है। क्योंकि वास्तव में धर्मतीर्थ संसार के कल्याण के लिए है। ___ आज के पावन ऐतिहासिक दिवस पर हम भी सन्मति तीर्थ को नमस्कार करके संकल्प करते हैं हम अपने को भगवान सन्मति-महावीर के पवित्र नाम के साथ जोड़ते हैं। सम्प्रदाय की दृष्टि से नहीं, मान्यताओं एवं परम्पराओं की दृष्टि से भी नहीं और परम्परा से क्या कहा गया इससे भी नहीं, प्रत्युत हम तो इस दृष्टि से अपने को प्रभु चरणों में समर्पित कर रहे हैं, उनके साथ स्वयं को जोड़ रहे हैं, कि सत्य का साक्षात्कार करने मुक्त मन से चिन्तन किया जाए, स्वयं सत्य को समझा जाए और जन-जन को सत्य समझाया जाए। सन्मति स्वयं प्राप्त की जाए और सम्पर्क में समागत जनों को सन्मति दी जाए। हम उस महान् सत्य का जन-जन को बोध कराने का विचार रखते हैं, जिसका अनन्त ज्ञानियों ने अपने ज्योतिर्मय ज्ञान में साक्षात्कार किया है। इस दृष्टि से तीर्थ स्थापना के पावन 186 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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