Book Title: Sanmarg Pravrutti Hetu Guru Updesh ka Mahattva Author(s): Rucha Sharma Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 7
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 129 SATTA हो जाता है। शुकनास ने इसे शास्त्र रूपी नेत्रों के लिए तिमिरान्ध रोग कहा है।" तिमिर रोग ( रतौंधी) से दर्शन - शक्ति विनष्ट हो जाती है। इसी प्रकार यह लक्ष्मी भी वेद-वेदाङ्ग - स्मृति आदि शास्त्रों ज्ञान पर अपने कलुषित प्रभावों ( काम, क्रोध, मोह आदि) का ऐसा पर्दा डाल देती है कि हमारी विवेकशक्ति उस अन्धेरे में पथभ्रष्ट हो जाती है । काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीनों आत्मा का नाश कर देते हैं । 29 लक्ष्मीमद से शासकवर्ग में विकृति शुकनासोपदेश में लक्ष्मी के मद से राजाओं में उत्पन्न होने वाले जिन विकारों का वर्णन किया गया है, वे आज भी प्रासङ्गिक हैं। राजा एक शासक हुआ करता था जो प्रजा के पालन का उत्तरदायित्व वहन करता था। आज जनता के लिए जनता द्वारा ही चुने हुए राजनेता इस कार्यभार को वहन करते हैं । ये सत्ताधारी नेता ही आज 'राजा' के सम्मान को प्राप्त करते हैं और मन्त्री शुकनास का यह उपदेश इन पर भी यथावत् ही चरितार्थ होता है । राजा या सत्ताधारी ही नहीं प्रत्येक लक्ष्मी का कृपापात्र इस उपदेश का पात्र है, क्योंकि यह लक्ष्मी अपने कृपापात्र प्रत्येक व्यक्ति में विकार उत्पन्न कर ही देती है । यह लक्ष्मी राजाओं का आश्रय प्राप्त कर उन्हें विह्वल कर देती है। धन का लोभ, विषयासक्ति, शब्द-स्पर्शादि विषयों के रसास्वादन की इच्छा और व्याकुल मन के कारण वे अधीर हो उठते हैं। लक्ष्मी उन्हें सभी अविनयों का अधिष्ठान बना देती है । उदारता, क्षमा, सत्यवादिता, दया आदि सभी गुणों को नष्ट कर अज्ञान के पाश में बाँध देती है। इस कारण वे जरागमन ( वृद्धावस्था) के स्मरण से विस्मृत हो जाते हैं। जयघोष के कलरव के कारण उन्हें सद्वचन सुनायी नहीं देते हैं । लक्ष्मी के सम्पर्क में आते ही राजा लोग इस प्रकार चञ्चल हो उठते हैं मानो किसी मन्त्रशक्ति ने उन्हें वश में कर लिया हो अथवा धन अहङ्कार की अग्नि में झुलसने से छटपटा रहे हों। लक्ष्मी के सम्पर्क से वे केकड़े की भाँति टेढ़ी-मेढ़ी अर्थात् कुटिल चाल चलने लगते हैं।" वास्तव में आज भी सत्ता पाने के लिए राजनेता छटपटाते रहते हैं और कुटिल चाल चलते रहते हैं। राजनीति तो भ्रष्टाचार और कुटिल नीतियों का पर्याय ही बन गई है। धन का लालच उन्हें नई-नई भ्रष्ट नीतियाँ स्वतः ही सिखा देता है । 'सप्तपर्ण' नामक वृक्ष जिस प्रकार अपने पुष्परज (पराग ) के विकार से अपने आसन्नवर्ती जनों के सिर में दर्द उत्पन्न कर देता है उसी प्रकार ये राजा लोग अपने रजोगुणी विकारों (काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, असूया, अहङ्कार, ईर्ष्या और मत्सर ) " से उत्पन्न अवज्ञासूचक नेत्रों से समीपस्थ जनों को दुःखी कर देते हैं। अपने बन्धुजनों को भी नहीं पहचान पाते हैं और उत्कृष्ट मन्त्रणाओं के द्वारा भी अपने कर्त्तव्यों को नहीं समझ पाते हैं। दूसरों का तेज उन्हें उसी प्रकार सहन नहीं है जिस प्रकार लाख के आभूषण उष्मा नहीं सह पाते हैं। आज के सत्ताधारियों को भी प्रबल प्रतिपक्षी के प्रतापानल से अपनी स्थिति के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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