Book Title: Sankhya Darshan me Karm Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf View full book textPage 3
________________ सांख्यदर्शन में कर्म ] [ १६३ अर्थात् दोनों के संयोग से अचेतन बुद्धि आदि प्रकृति चेतन सदृश प्रतीत होते हैं और उसी प्रकार प्रकृति-गुणों के कर्ता होने पर भी उदासीन पुरुष कर्ता सा प्रतीत होता है । यही बंधन है । जब तक यह संयोग चलता रहता है, भोग होता रहता है । लेकिन जब विवेकख्याति द्वारा पुरुष एवं प्रकृति का भेद ज्ञात हो जाता है तब बंधन समाप्त हो जाता है, कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है । सत्कार्यवाद : सांख्यदर्शन का मूल सिद्धान्त असत्कार्यवाद है । असत्कार्यवाद के अनुसार कार्य अपने कारण में अव्यक्तावस्था में विद्यमान रहता है, नया उत्पन्न नहीं होता । तिलों में तेल पहले से अव्यक्तावस्था में विद्यमान रहता है। तभी तो उसमें से तेल निकलता है । रेत में से तेल नहीं निकलता क्योंकि उसमें पहले से विद्यमान नहीं होता । संक्षेप में किसी कार्य की अव्यक्तावस्था कारण एवं कारण की व्यक्तावस्था कार्य कही जा सकती है । यही कारण है कि पुरुष को अकर्ता एवं द्रष्टा प्रतिपादित किया गया है । उसको सदैव निर्विकार बतलाया गया है । वह न बन्धन को प्राप्त होता है और न मुक्त होता है - यह बात भी इसीलिए कही गयी है । प्रकृति का उपकार : प्रकृति पुरुष के भोग एवं कैवल्य के लिए प्रवृत्त होती है । वह प्रत्येक पुरुष के मोक्ष के लिए सृष्टि का निर्माण करती है । ईश्वरकृष्ण ने कहा है— 'जैसे बछड़े के बढ़ने के लिए अचेतन दुग्ध स्वतः निकलता है, वैसे ही पुरुष- के मोक्ष के लिए प्रकृति भी स्वतः प्रवृत्त होती है ।' प्रकृति के विषय में यहाँ तक कह दिया गया कि जिस प्रकार अपनी इच्छा पूर्ति के लिए व्यक्ति कार्य में प्रवृत्त होते हैं, उसी प्रकार प्रकृति भी पुरुष के मोक्ष के लिए प्रवृत्त होती है । कैवल्य : पुरुष एवं प्रकृति का पार्थक्य-बोध ही कैवल्य का कारण है । इस पार्थक्यको विवेकख्याति नाम दिया जाता है । इसमें तत्त्वों के अभ्यास को भी कारण माना गया है । 'सांख्यकारिका' में कैवल्य का स्वरूप बतलाते हुए. ईश्वरकृष्ण ने कहा है एवं तत्त्वाभ्यासान्नाऽस्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम् । विपर्ययाद्विशुद्ध केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ।। अर्थात् तत्त्व-ज्ञान का अभ्यास करने से 'न मैं (क्रियावान्) हूँ, न मेरा ( भोक्तृत्व ) है और न मैं कर्ता हूँ - इस प्रकार सम्पूर्ण एवं विपर्ययरहित होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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