________________ कहलाते हैं जट किया गया 25) भात कषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली-इन चार गुणस्थानों में होता है।' मूलाचार में पांच महाव्रतों के स्वरूप का पृथक्-पृथक् निरूपण करके 'महाव्रत' नाम की सार्थकता को प्रकट करते हुए कहा गया है कि ये पांच महाव्रत चूंकि महान् अर्थ-जो मोक्ष है-उसे सिद्ध करते हैं, महान् पुरुषों के द्वारा उनका आचरण किया गया है, तथा स्वयं भी सर्वसावध के परित्यागरूप होने से महान् हैं, इसलिए वे महाव्रत कहलाते हैं। आगे वहां रात्रि-भोजन के परित्याग को महत्त्वपूर्ण बताते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि उन्हीं महाव्रतों के संरक्षण के लिए रात्रि में भोजन के परित्याग, आठ प्रवचन-माताओं और सब-पांचों व्रतों की पृथक्-पृथक् पांच-पांच (कुल 25) भावनाओं का उपदेश दिया गया है।' आठ व तेरह.भेद इसी प्रसंग में वहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि पांच समितियों और तीन गुप्तियों के परिपालन में साधु को परिणामों की निर्मलता के साथ सदा सावधान रहना चाहिए। इस प्रकार यह-पांच समितियों और तीन गुप्तियों रूप-चारित्राचार आठ प्रकार का जानना चाहिए। इसमें पूर्वोक्त पांच महाव्रतों को सम्मिलित करने पर साधु यह का आचार तेरह प्रकार का हो जाता है। 3. गुप्तियां पांच समितियों का स्वरूप पीछे मूलगुणों के प्रसंग में कहा जा चुका है। यहां गुप्तियों के स्वरूप को स्पष्ट किया जाता है साधु सावध कार्य से संयुक्त मन, वचन और काय की प्रवृत्ति को जो रोकता है, यह गुप्तिसामान्य का लक्षण है। मन को रागद्वेषादि से हटाना, इसे मन-गुप्ति और असत्य-भाषण आदि से वचन के व्यापार को रोकना अथवा मौन रखना और हिंसादि में प्रवृत्त न होना, यह कायगुप्ति का लक्षण है। इन गुप्तियों से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का संरक्षण होता है, अथवा वे मिथ्यात्व, असंयम व कषायों से आत्मा का संरक्षण करती हैं, इसीलिए 'गुप्ति' यह नाम सार्थक समझना चाहिए। जिस प्रकार खेत (फसल) की रक्षा-वृत्ति खेत के सब ओर निर्मित बाढ़ या बारी करती है, तथा नगर की रक्षा खाई व कोट किया करते हैं, उसी प्रकार ये गुप्तियां साधु का पाप से संरक्षण किया करती हैं। इसीलिए कृत, कारित और अनुमत के साथ मन, वचन व काय योगों की दुष्प्रवृत्ति की ओर से सदा सावधान रहते हुए ध्यान व स्वाध्याय में प्रवृत्त रहने की साधु को प्रेरणा दी गई है। जिस प्रकार माता पुत्र के पालन में निरन्तर प्रयत्नशील रहती है, उसी प्रकार पांच समितियां और तीन गुप्तियां-- ये आठों, मुनि के ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सदा रक्षा किया करती हैं, इसीलिए इन आठों का 'प्रवचन-माता' के रूप में उल्लेख किया गया है। कर्माश्रित तीन भेद चारित्र मूल में दो प्रकार का है-देशचारित्र और सकलचारित्र। (इनमें से इस लेख में देश या विकल चारित्र की विवक्षा नहीं रही है) / सकल चारित्र तीन प्रकार का है—क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक / ' क्षायोपशमिक-चार संज्वलन और नौ नोकषायों के देशघाती स्पर्धकों के उदय के रहते हुए जो चारित्र होता है, उसका नाम क्षायोपशमिक चारित्र है। इसका अभिप्राय यह है कि सर्वधाती स्पर्धक अनन्तगुणे हीन होते हुए देशघाती स्पर्धक स्वरूप में परिणत होकर जो उदय में आते हैं उनकी इस अनन्तगुणी हीनता का नाम क्षय है तथा देशघाती स्पर्धक स्वरूप से अवस्थित रहने का नाम 'उपशम' है। इस प्रकार के क्षय और उपशम के साथ रहने वाले उदय का नाम क्षयोपशम है। इस क्षयोपशम से होने वाले चारित्र को क्षायोपशमिक कहा जाता है। तदनुसार पूर्वोक्त पांच भेदों में सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि-इन तीन को क्षायोपशमिक जानना चाहिए। औपशमिक व क्षायिक-चारित्र मोहनीय-के उपशम व क्षय से जो चारित्र होता है उसे क्रम से औपशमिक व क्षायिक कहा जाता है। पूर्वोक्त पांच भेदों में सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामकों के औपशमिक और सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकों के क्षायिक होता है / उपशान्त कषाय संयत के औपशमिक (यथाख्यात चारित्र) और क्षीण-कषाय संयत के क्षायिक (यथाख्यात चारित्र) होता है। 1. षट्खण्डागम-सूत्र-१/१/१२८ (पु०१) 2. मूलाचार 5/67 3, मलाचार, गाथा 5/68, भावनाओं के लिए देखिए-मूलाचार 5/40.46 व तस्वार्थसून 7/3-12 4. मूलाचार 5/100 5. मूलाचार, 5, 134-36 6. तत्त्वार्यसूत्र 7/2, रत्नकरण्ड० 50, धवला पु० 6, पृ० 268 7. धवला पु०६,०२८१ 8. वही, पु०७, पृ०६२ 1. बही, 7, पृ. 64-65 जैन धर्म एवं आचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org