Book Title: Samyag gyan dipika Shastriya Chintan Author(s): Devendra Kumar Jain Publisher: Z_Fulchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012004.pdf View full book textPage 3
________________ पंचम खण्ड : ६७१ "पूर्वकर्मवश वह अन्य वृत्तिमें लग जाय, तब वह स्व-सम्यग्ज्ञानानुभवको भूल भी जाता है, परन्तु जब याद करे तब साक्षात् स्वानुभवमें आता है । इसी विषयमें तीन दृष्टान्त हैं-( १ ) जैसे एक बार चन्द्रको देख लेनेके बाद चन्द्रका अनुभव जाता नहीं, ( २ ) एक बार गुड़को खानेके बाद गुड़का अनुभव जाता नहीं, (३) तथा एक बार भोग भोगनेके बाद भोगका अनुभव जाता नहीं।" - स्व-सम्यग्ज्ञानको समझानेके लिए दर्पणका, पेटी तिजोरीमें रखकर भूले हुए रत्नका दृष्टान्त देकर फिर ये तीन दृष्टान्त दिये गए हैं। प्रत्येक बातको लेखक दृष्टान्तसे प्रारम्भ करता है । जैसे कि "जैसे बाजीगर अनेक प्रकारका तमाशा, चेष्टा करता है, परन्तु स्वयं अपने दिलमें जानता है कि मैं जो ये तमाशे, चेष्टाएँ करता हूँ, वैसा मैं मूल स्वभावसे ही नहीं हूँ। "जैसे खड़िया मिट्टी आप स्वयं ही श्वेत है और परको, भीत आदिको श्वेत करती है, परन्तु स्वयं भीत आदिसे तन्मय होती नहीं। वैसे ही सम्यग्ज्ञान है वह सर्व संसार आदिको चेतनवत् करके रखता है, परन्तु स्वयं संसार आदिसे तन्मय होता नहीं।" विद्वान् लेखकने एक बात ही कई प्रकारके दृष्टान्तोंसे विविध स्थानोंपर समझाया है। पद-पदपर वे अपने सम्यग्ज्ञानके अनुभवको ही सुनाते हैं। लगता है कि कोई अनुभवी निश्छलताके साथ सहज स्नेहवश सी -सरल शब्दोंमें अपनी बात सुना रहा है । उनके ही शब्दोंमें _ 'स्व-सम्यग्ज्ञानानुभव सुनो । जैसे कोई पुरुष पानीसे भरे हुए घटमें सूर्य के प्रतिबिम्बको देखकर सन्तुष्ट था, उससे यथार्थ सूर्यके जाननेवाले पुरुषने कहा कि तू ऊपर आकाशमें सूर्य है उसे देख, तब वह पुरुष घटमें सूर्यको देखना छोड़कर ऊपर आकाशमें देखने लगा। तब यथार्थ सूर्यको देखकर उसने अपने अन्तःकरणमें विचार किया कि जैसा सूर्य ऊपर आकाशमें दिखाई देता है, वैसा ही घटमें दिखाई देता है । जैसा यहाँ, वैसा वहाँ तथा जैसा वहाँ, बैसा यहाँ, अथवा न यहाँ, न वहाँ अर्थात जैसा है, वैसा जहाँका तहाँ, वैसा ही स्वसम्यग्ज्ञानमयी सूर्य है, वह तो जैसा है वैसा, जहाँका तहाँ स्वानुभव गम्य है। वह जो है, उसे नय, न्याय और शब्दसे तन्मय हो रहे पण्डित उस स्वानुभवगम्य सम्यग्ज्ञानमयी परब्रह्म परमात्माकी अनेक प्रकारसे कल्पना करते हैं, वह वृथा है।' कहीं-कहीं बहुत ही कम शब्दोंमें हृदयको छूती हुई भाषामें भाव प्रकट किए गये हैं। छोटे-छोटे वाक्योंसे रस टपकता हुआ जान पड़ता है। जैसे कि___ 'जैसा बीज वैसा उसका फल । जैसे जो नेत्रसे देखता है परन्तु नेत्रको नहीं देखता है, वह स्यात् अन्धेके समान है : वैसे ही जो ज्ञानसे जानता है परन्तु ज्ञानको नहीं जानता है, वह स्यात् अज्ञानके समान है।' इसी प्रकार ___ 'जैसे सूर्यके प्रकाशमें अन्धकार कहाँ है और सूर्यको निकाल लिया जाये तो प्रतिबिम्ब कहाँ है ? आत्मज्ञानी जीवके लिये जगत्-संसार मृगजलके समान है, परन्तु सूर्य न हो तो मृगजल कहाँ है ? वैसे ही गुरुके उपदेश द्वारा आपमें आपमयी आपको आपमें ही खेंच लेनेके बाद आकार कहाँ है ? वैसे ही यह जगत्-संसार है सो भ्रम है, भ्रम उड़ गया तो जगत्-संसार कहाँ है ?' कहीं-कहीं दृष्टान्त भी तर्कपूर्ण तथा सरल शब्दोंमें सहज भावसे अभिव्यक्त हए हैं। जैसे कि-'जैसे आकाशको धुलि-मेघादिक नहीं लगते, वैसे ही स्व-सम्यग्ज्ञानको पाप-पुण्य तथा पाप-पुण्यका फल नहीं लगता।' इसी प्रकार __ 'जैसे घटके भीतर, बाहर और मध्यमें आकाश है, वह घटको कैसे त्यागे और ग्रहण भी कैसे करे ? वैसे ही इस जगत-संसारके भीतर, बाहर और मध्यमें स्व-सम्यग्ज्ञान है, वह क्या त्यागे और क्या ग्रहण करे?' तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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