Book Title: Sampraday aur Satya
Author(s): Sukhlal Sanghavi
Publisher: Z_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ धर्म और समाज फिरकोंकी विरोधी मान्यताओंमें सीमाबद्ध रहनेवाले जैनधर्मसम्बन्धी शब्दों और संकेतों की बात हुई । परंतु अब वह चित्र अधिक विस्तृत होता है । अत्र वह बालक, किशोर, कुमार या कालेजका तण मिटकर विश्वशालाका विद्यार्थी बनता है। उसके सामने अनेक पंथोंके अनेक रूपके धर्मगुरु, अनेक प्रकारके आचार और क्रियाकांड, अनेक प्रकारके धर्मशास्त्र और धार्मिक विचार उपस्थित होते हैं, इससे वह और अधिक उलझन में मैं पड़ जाता है। वह कहता है कि इन सबको धर्म-प्रदेशमें गिन सकते हैं या नहीं ? यदि ये धर्मकी उस कोटिमें सम्मिलित नहीं हो सकते तो क्या कारण है? यदि गिन सकते हैं तो उनको कुलधर्म अर्थात् प्रथमके जैन धर्मको कोटिमें गिना जाए अथवा उससे हीन कोटि ? इस दुविधाका समाधान भी हजारोंमेंसे कोई एक ही कर पाता है । इस प्रकार जन्म से लेकर बड़ी अवस्थापर्यंत कुलपरंपरा से प्राप्त साम्प्रदायिक भावना के परिणामस्वरूप मनुष्यजाति भिन्न भिन्न पंथोंकी छावनियोंमें एकत्रित होकर एक दूसरे के ऊपर नास्तिकता, धर्मभ्रष्टता मिथ्यादृष्टि आदि धार्मिक लड़ाईकी तोपें चलाते हैं और आस्तिकता धार्मिकता एवं सम्यग्दृष्टि आदि सर्व मान्य शब्दोंके कवचसे अपनेको सुरक्षित बनाने का पूरा प्रयत्न करते है । धर्म के इस युद्ध क्षेत्रको देखकर एक विचारक चिंतनमें डूब जाता है और अपनी उलझन को अन्यके द्वारा सुलझवाने की अपेक्षा स्वयं ही उसकी गहराई में पैठनेका प्रयत्न करता है । बाद में तो वह विविध शास्त्रोंका अध्ययन करता है, उक्त सभी विवादग्रस्त प्रश्नोंका तटस्थ भाव से विचार करता है और उसके मनमें मनुष्यत्व के आदर्श और धर्मका परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह विचार होते ही उसका सारा भ्रम दूर हो जाता है, उलझन अपने आप ही सुलझ जाती है और इस नवीन ज्योतिके प्रकाशमें वह सांप्रदायिकता और सत्यका अंतर समझ जाता है । तब वह देखता है कि सम्प्रदाय किसी एक व्यक्तिकी विशिष्ट साधनाका प्रतीक है। इसमें तो संप्रदाय के मूल प्रवर्तककी आत्मा प्रदर्शित होती है । वह आत्मा महान् होनेपर भी अन्ततः मर्यादित ही है । उसकी साधना तेजस्वी होनेपर भी अन्य दूसरे प्रकाशों को अभिभूत या लुप्त नहीं कर सकती । यद्यपि उसकी साधना के पीछे विद्यमान मूल प्रवर्तक के उपयोगी अनुभव हैं, फिर भी वे अन्य साधकों की साधना एवं अनुभवोंको व्यर्थ और अनुपयोगी सिद्ध नहीं कर सकते । वे तो केवल अपनी उपयोगिता सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6