Book Title: Samlekhna Ek Shreshth Mrutyukala
Author(s): Saubhagyamal Maharaj
Publisher: Z_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
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संलेखना : एक श्रेष्ठ मृत्युकला | ४१३
मासिक संलेखना और साठ मक्त अनशन दोनों का कालमान अलग-अलग है या एक अनशन के ही वाचक है ? इस पर आगम मर्मज्ञों को विचार करना चाहिए। वास्तव में संलेखना भी जीवन की अन्तिम आराधना ही है, किन्तु वह अनशन की पूर्व भूमिका मानी जानी चाहिए। प्रवचन सारोद्धार की वृत्ति में इसका स्पष्ट संकेत है कि द्वादश वर्षीय उत्कृष्ट संलेखना करके फिर कन्दरा-पर्वत, गुफा आदि में जाकर अथवा किसी भी निर्दोष स्थान पर जाकर पादपोपगमन अनशन करे अथवा मक्त परिज्ञा तथा इंगिनीमरण की आराधना करे । २८ इस वर्णन से तो यही ध्वनित होता है कि संलेखना अनशन की पूर्व भूमिका है, अनशन की तैयारी है । संलेखना करने वाला साधक शरीर को तथा कषाय आदि
को इतना कृश कर लेता है कि अनशन की दशा में उसे विशेष प्रकार की क्लामना नहीं होती। शरीर एवं मन को उसके लिए तैयार कर लेता है, कषाय वृत्तियाँ अत्यन्त मन्द हो जाती है तथा शरीर बल इतना क्षीण हो जाता है कि अनशन दशा में स्वतः ही स्थिरता की साधना सम्भव हो जाती है। शरीर त्याग हठात् या अकस्मात् करने जैसा नहीं है । शरीर के साथ-साथ आयुष्य कर्म की क्षीणता भी होनी चाहिये। कल्पना करें यदि अनशन कर शरीर को क्षीण करने की प्रक्रिया तो प्रारम्भ कर दी जाए, लेकिन आयुष्य कर्म वलवान हो तो वह अनशनकाल बहुत लम्बा सुदीर्घं हो सकता है अति दीर्घकालीन अनशन में भावों की विशुद्धि, समता तथा मनोबल एक जैसा बना रहे तो ठीक है, अन्यथा विकट स्थिति भी आ सकती है। इसलिए यावज्जीवन अनशन ग्रहण करने के पूर्व जैसे दीपक के तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से ही दीपक विलय हो जाता है, उसी प्रकार देह और आयुष्य कर्म का एक साथ क्षय होने से अनशन की स्थिति ठीक से पूर्ण होती है। अनशन से पूर्व संलेखना की आराधना करने का यही हेतु है ।
संलेखना की विधि
संलेखना को व्याख्या तथा उद्देश्य स्पष्ट होने के बाद हमें उसकी विधि के सम्बन्ध में भी जानना है । जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है - " संलेहणा दुवालस वरिसे " - संलेखना का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का है । उसके तीन भेद बताये गये हैं- “सा जवन्या मध्यमा उत्कृष्टा च । " २६ जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट- ये तीन भेद संलेखना के हैं ।
प्रवचन सारोद्धार में उत्कृष्ट संलेखना का स्वरूप बताते हुए कहा हैचत्तारि विचित्ताई विगद निज्जुहियाई चत्तारि । संवछरे य दोन्नि एतरियं च आयामं । १५२ । नाइयिगिय तो छम्मास परिमि च आयामं । अवरे लिय उम्मासे होई विगिट तवो कम्मं । २८३ ।
प्रथम चार वर्ष तक चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि तप करता रहे और पारणे में सभी प्रकार के योग्य शुद्ध आहार का ग्रहण करे । अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध और विचित्र प्रकार के तप करता रहे किन्तु पारणे में रस
नियूँढ़ सविगय का त्याग कर दे । आठ वर्ष तक तपः साधन करने के बाद नौवें दसवें वर्ष में एकान्तर तप (चतुर्थ भक्त) व एकान्तर आयम्बिल करे, अर्थात् एक उपवास, उपवास के पारणे में आयम्बिल, फिर उपवास और फिर पारणे में आयम्बिल । इस प्रकार दस वर्ष तक यह तपः कर्म करे । ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छहमास में सिर्फ चतुर्थ व पष्ठ तप करे, इससे अधिक नहीं और पारणे में आयंबिल करे, किन्तु आयंबिल ऊनोदरी पूर्वक करे । अगले छह मास में चतुर्थषष्ठ से अधिक अष्टम, दशम आदि तप करे और पारणे में आयंबिल करे, इसमें ऊनोदरी का विधान नहीं है । संलेखना के बारहवें वर्ष के सम्बन्ध में आचार्यों के अनेक मत हैं। निशीथ चूर्णिकार का मत है कि "दुवालसयं परिसं निरन्तरं हायमाणं उसिणोदराण आयंबिल करे तं कोड़ोसहियं भव जेणयं विलास फोडी फोडीए मिलइ ।" बारहवें वर्ष में निरन्तर उष्ण जल के आगार के साथ हायमान आयंबिल करे। इससे एक आयंबिल का अन्तिम क्षण दूसरे आयंबिल के आदि क्षण से मिल जाता है, जिसे कोडीसहियं आयंबिल कहते हैं । हायमान का अर्थ निरन्तर घटाते जाना । भोजन व पानी की मात्रा क्रमशः कम करते-करते वर्षान्त में उस स्थिति में पहुंच जाए कि एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण करने की स्थिति आ जाए। प्रवचनसारोद्धार की वृति में भी इसी क्रम का निदर्शन है ।
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