Book Title: Samanvay ka Marg Syadwad
Author(s): Arunlata Jain
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 4
________________ निराकरण करने के लिए गुटनिरपेक्षता को अपनाकर ही शान्ति व्यवस्था लाई जा सकती है। इस गुट निरपेक्षता का आधार स्याद्वाद है। महावीर का दृष्टिकोण भगवान महावीर ने कहा था कि कोई मत, सिद्धान्त असत्य नहीं है। विरोधियों द्वारा स्वीकृत सत्य भी सत्य है क्योंकि विरोधियों के सत्य में भी सृजनात्मक तत्व विद्यमान रहते हैं। स्व-सत्य से तालमेल न बैठने के कारण उनकी उपेक्षा विध्वंसात्मक भावों को जन्म देती है। यह सत्य है कि मानव द्रव्य के सम्पूर्ण रूप को एक साथ नहीं समझ सकता यदि ऐसा ही हो तो सर्वज्ञ बन जाय / कोई एक मार्ग नहीं है जिस पर आगे बढ़कर सत्य के सभी पक्षों का ज्ञान हो जाय / स्याद्वाद में दुराग्रह नहीं है। इस सिद्धान्त को अपनाते हुए राष्ट्रीय नीतियों की स्वीकृति के साथ अन्य राष्ट्र की नीतियों में जो ग्रहण करने योग्य हो, उसे भी अपनाना चाहिए। जिस प्रकार दूसरों के विचारों को सत्य व प्रमाणिक रूप में स्वीकार करते हैं। उसी प्रकार अन्य राष्ट्रों की नीतियों, उनकी सार्वभौमिकता के प्रति भी सम्मान का भाव रखना आवश्यक है। जब किसी 'वाद' को ऐकान्तिक रूप से सत्य मानते हैं और अन्य ‘वादों' को असत्य मानते हैं तब द्वन्द्वात्मक स्थिति सामने आती है। स्याद्वाद ही असहिष्णुता तथा मनमानी विचारधाराओं में परिमार्जन कर उन्हें नया रूप दे सकता है। स्याद्वाद का शिक्षण अपने प्रति ही नहीं समस्त मानव जाति के प्रति आदर अनुराग उत्पन्न कर समन्वय की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। स्याद्वाद सम्पूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। जैन दार्शनिकों का कथन है बौद्धानामजुसूत्रतो मतमभूद्वेदान्तिनां संग्रहात् / सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः / / शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयगुंफितां। जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुद्वीक्ष्यते // -अध्यात्मसार, जिनमतिस्तुति अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण दर्शन नयवाद में समाहित हो जाते हैं, अतएव सम्पूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य हैं। उदाहरणतः ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा बौद्ध, संग्रहनय की अपेक्षा वेदान्त, नैगमनय की अपेक्षा न्याय-वैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्दब्रह्मवादी तथा व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाकदर्शन को सत्य कहा जा सकता है / ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्यक्त्व रूप कहे जाते हैं। सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता। वह सम्पूर्ण नयरूप दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्यदृष्टि से देखता है, जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है। क्योंकि अनेकान्तवादी को न्यूनाधिक बुद्धि नहीं हो सकती / वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है, जो स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। वास्तव में माध्यस्थ्य भाव ही शास्त्रों का गूढ़ रहस्य है, यही धर्मवाद है। माध्यस्थ्य भाव रहने पर शास्त्रों के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्रों के पढ़ जाने से भी कोई लाभ नहीं। यस्य सर्वत्र समता नयेषु तनयेष्विव। तस्यानेकान्तवादस्य व न्यूनाधिकशेमुषी॥ तेन स्याद्वादमालम्ब्य सर्वदर्शनतुल्यताम् / मोक्षोद्देशाविशेषेण यः पश्यति सः शास्त्रवित् // माध्यस्थ्यमेव शास्त्रार्थो येन तच्चारु सिध्यति / स एव धर्मवादः स्यादन्यद्बालिशवल्गनम् // माध्यस्थ्यसहितं ह्य कपदज्ञानमपि शास्त्रकोटिः वृथवान्या तथा चोक्तं महात्मना / -अध्यात्मसार, 61,70,72,73 --सम्पादक 18 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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