Book Title: Samadhi Shataka
Author(s): Sumatibai Shah
Publisher: Z_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf

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Page 2
________________ समाधिशतक-एक दिव्य शतक भारतीय सभी विचारकों ने आत्मा को एक गूढ तथा जटिल तत्त्व माना है। अतः आत्म-ज्ञानी रसिक के लिए यह विचारणीय बात बन जाती है, आत्म-तत्त्व का निरूपण करने में कितनी सरल एवं सरस पद्धति का अवलम्बन किया है । इस दृष्टि से समाधितन्त्र की निर्मिती सुन्दरता एवं सरलता से परिपुष्ट है । इस ग्रन्थ के निरन्तर अध्ययन एवं स्वाध्याय द्वारा मुझे इसमें इस विशेषता का अनुभव हुआ है कि पूज्य आचार्यजी ने संसारी दुःखी मानव की चिरन्तन, नित्य एवं चैतन्यरूप अध्यात्म तत्त्व की ओर आकृष्ट करने के लिए प्रथमतः भेद-विज्ञान का निरूपण किया है। भेदविज्ञान ही नहीं भ्रम का निरास करके आत्म-ज्ञान की निर्मिती में समर्थ है । शास्त्र के अध्ययन से अन्तरंग आत्मरस के प्रति-जागृति अवश्य होती है। इस ग्रन्थ में आचार्यजी ने आत्मा की उन्नति की विभिन्न अवस्थाओं का विश्लेषण किया है। वह अतीव सुन्दर, मधुर एवं प्रसादमय है। अतः शाश्वत आनंद एवं शान्ति का उद्गम माना जाता है । आत्म-विचार आचार्य पूज्यपाद ने आत्मा का विवेचन यहां बडी रोचकता से किया है । मोक्ष-मार्ग के कथन में बडे उपयोगी दृष्टान्त की योजना की है । वह इस प्रकार है बहिरात्मा—'मोक्ष-मार्ग' में जिस तत्व का कथन किया है उसे बहिरात्मा यथार्थ रूस से नहीं जानता । दर्शन-मोहनीय कर्म के उदय में वह जीव में अजीव की तथा अजीव में जीव की कल्पना करता है। दुःख देनेवाले राग-द्वेषादि विभावों को वह सुखदायी समझता है। बहिरात्मा आत्मतत्त्व से परावृत्त होकर कैसे संसार की गर्ता में पडता है इसका तर्कबद्ध वर्णन आ० पूज्यपाद ने इस ग्रंथ में किया है। बहिरात्मा की दृष्टि मुखी होती है। मनुष्य का शरीर प्राप्त करने पर वह अपनी आत्मा को मनुष्य मानता है, तिर्यंच गति में यदि जन्म हुआ तो स्वयं को तिर्यञ्च मानता है, परन्तु इस बात को नहीं जानता है कि ये कर्मोपाधि से होते हैं। स्वभाव दृष्टि से आत्मा का इन अवस्थाओं का कोई भी संबंध नहीं। आगे चल कर आचार्य कहते हैं कि वह अपने शरीर के साथ स्त्री-पुत्र मित्रादिक के शरीर से अपना संबंध जोडता है। इस लिए वह उनको उपकारक मानता है, उनकी रक्षा का प्रयास करता है। उनकी वृद्धि में अपनी वृद्धि मानता है, यह मूढात्मा इनमें व्यर्थ ही निजत्व की बुद्धि होने से आकुलित होता है। वह शरीर को ही आत्मा मानता है इस लिए जबतक इस देह में आत्मबुद्धि नहीं छुटती तब तक निराकुल निजानन्द रस का आस्वाद नहीं होता । संयोग-वियोग में हर्ष विषाद करता है व संसार बढाता है । संसार दुःख का मूल कारण यह देहबुद्धि ही है । कहा है कि मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः । त्यक्त्यैनां प्रविशेदन्तर्बहिव्यापृतेन्दिया । आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना हो तो आचार्यजी ने मानव की व्यावहारिक भूमिका का विचार कर यह सूचित करने का प्रयत्न किया है कि बाह्य जल्प का त्याग कर अन्तरंग जल्प को भी पूर्ण छोडना चाहिए। ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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