Book Title: Sadhna aur Sewa ka Mahasambandh Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 1
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि साधना और सेवा का सहसम्बन्ध 0 डॉ. सागरमल जैन साधना और सेवा एक-दूसरे के अभिन्न अंग हैं। साधना तो है किंतु ग्लान-रुग्ण के प्रति सेवा की भावना नहीं है, तो वह साधक निकृष्ट है। वैसी साधना दम्भ है, पाखंड है। जैन, वैदिक और बौद्धधर्म में व्याप्त सेवा और साधना के संबंधों को परिभाषित कर रहे हैं - जैन दर्शन के उत्कृष्ट गवेषक-लेखक - डॉ. सागरमलजी जैन। - सम्पादक साधना और सेवा : एक दूसरे के पूरक माना गया है कि पारस्परिक सहयोग प्राणीय प्रकृति है। इस सन्दर्भ में जैन दार्शनिक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में सामान्यतः साधना व्यक्तिगत और सेवा समाजगत एक सूत्र दिया है:है। दूसरे शब्दों में साधना का सम्बन्ध व्यक्ति स्वयं से होता है अतः वह वैयक्तिक होती है, जबकि सेवा का परस्परोपग्रहो जीवानाम्। सम्बन्ध दूसरे व्यक्तियों से होता है। अतः उसे समाजगत __ - तत्त्वार्थ सूत्र - ५/२१ कहा जाता है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों की यह __ अर्थात् एक दूसरे का हित साधन करना प्राणियों की अवधारणा है कि साधना और सेवा एक-दूसरे से निरपेक्ष प्रकति है। प्राणी जगत में यह एक स्वाभाविक नियम है हैं। इनके बीच किसी प्रकार का सहसम्बन्ध नहीं है। कि वे एक-दसरे के सहयोग या सहकार के बिना जीवित किन्तु मेरी दृष्टि में साधना और सेवा को एक दूसरे से नहीं रह सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन का कार्य निरपेक्ष मानना उचित नहीं है, वे एक दूसरे की पूरक हैं, है जीवन जीने में एक दूसरे का सहयोगी बनना। जीवन क्योंकि व्यक्ति अपने आप में केवल व्यक्ति ही नहीं है, एक-दूसरे के सहयोग से ही चलता है। अतः एक-दूसरे वह समाज भी है। व्यक्ति के अभाव में समाज की का सहयोग करना प्राणियों का स्वाभाविक धर्म है। परिकल्पना जिस प्रकार आधारहीन है, उसी प्रकार समाज के अभाव में व्यक्ति, विशेष रूप से मानव व्यक्ति, का व्यक्ति और समाज में अंग-अंगीय सम्बन्ध भी कोई अस्तित्व नहीं है। क्योंकि न केवल मनुष्यों में, कुछ विचारकों का विचार है कि व्यक्ति स्वभावतः अपितु किसी सीमा तक पशुओं में भी एक सामाजिक स्वार्थी है, वह केवल अपना हित चाहता है, किन्तु यह व्यवस्था देखी जाती है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह सिद्ध एक भ्रान्त अवधारणा है। यदि व्यक्ति और समाज एक हो चुका है कि चींटी और मधुमक्खी जैसे क्षुद्र प्राणियों में दूसरे से निरपेक्ष नहीं है, तो हमें यह मानना होगा कि भी एक सामाजिक व्यवस्था होती है। अतः यह सिद्ध है व्यक्ति के हित में ही समाज का हित और समाज के हित कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से निरपेक्ष नहीं है। में ही व्यक्ति का हित समाया हुआ है। दूसरे शब्दों में, यदि व्यक्ति और समाज परस्पर सापेक्ष हैं और उनके सामाजिक कल्याण और वैयक्तिक कल्याण एक-दूसरे से बीच कोई सहसम्बन्ध है, तो फिर हमें यह भी मानना होगा। पृथक् नहीं है। यदि व्यक्ति समाज का मूलभूत घटक है, कि साधना और सेवा भी परस्पर सापेक्ष है और उनके तो हमें यह मानना होगा कि समाज-कल्याण में व्यक्ति का बीच भी एक सहसम्बन्ध है। जैन दर्शन में व्यक्ति की कल्याण निहित है। व्यक्तियों के अभाव में समाज एक सामाजिक प्रकृति का चित्रण करते हुए स्पष्ट रूप से यह अमूर्त कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। व्यक्ति से ७२ साधना और सेवा का सहसम्बन्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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